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सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा है ज्योतिर्लिंग श्रीमहाकालेश्वर की


ज्योतिर्लिंग श्रीमहाकालेश्वर
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा है ज्योतिर्लिंग श्रीमहाकालेश्वर की

- डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा


अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्‌।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वंदे महाकालमहासुरेशम्‌॥

सुपूज्य और दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित उज्जयिनी के महाकालेश्वर की महिमा अनुपम है। सज्जनों को मुक्ति प्रदान करने के लिए ही उन्होंने
अवंतिका में अवतार धारण किया है। ऐसे महाकाल महादेव की उपासना न जाने किस सुदूर अतीत से अकालमृत्यु से बचने और मंगलमय जीवन के लिए की जा रही है। शिव काल से परे हैं, वे साक्षात्‌ कालस्वरूप हैं। उन्होंने स्वेच्छा से पुरुषरूप धारण किया है, वे त्रिगुणस्वरूप और प्रकृति रूप हैं। समस्त योगीजन समाधि अवस्था में अपने हृदयकमल के कोश में उनके ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं। ऐसे परमात्मारूप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से ही अनादि उज्जयिनी को पूरे ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा मिली है। पुरातन मान्यता के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में तीन लिंगों को सर्वोपरि स्थान मिला है – आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर और इस धरा पर महाकालेश्वर।

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम्‌।
भूलोके च महाकालोः लिंगत्रय नमोस्तुते॥

शिव की उपासना अनेक सहस्राब्दियों से चली आ रही है।
 शिवलिंग के रूप में उनका अर्चन संभवतः सबसे प्राचीन प्रतीकार्चन है। वैदिक वाङ्‌मय के रुद्र ही परवर्ती काल में शिव के रूप में लोक में बहुपूजित हुए, जो अघोर और फिर घोर से भी घोरतर रूप लिए थे। उज्जयिनी अति प्राचीनकाल से जुड़े दर्शन, पूजा पद्धति और कला परम्पराओं के विकास में इस क्षेत्र का विशिष्ट योगदान रहा है। शैव धर्म की चार धाराओं- शैव, कालानल, पाशुपत और कापालिक का संबंध न्यूनाधिक रूप से उज्जैन, औंकारेश्वर, मंदसौर सहित समूचे मालवांचल से रहा है। पुराणों से संकेत मिलता है कि उज्जयिनी पाशुपतों की पीठ स्थली रही है। शंकर दिग्विजय के अनुसार यहाँ कापालिक निवास करते थे। महाकालेश्वर यहाँ के अधिष्ठाता देवता है। इनका ज्योतिर्लिंग दक्षिणामूर्ति होने से तांत्रिक साधना का दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है।उज्जैन के महाकाल वन का तांत्रिक परम्परा में विशिष्ट स्थान है। स्कंदपुराण के अवंती खंड के अनुसार साधना की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी पाँच स्थल-श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ और वन यहीं उपलब्ध हैं-

श्मशानमूषरं क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पंचैकत्र न लभ्यंते महाकालवनाद्‌ ऋते॥

प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जयिनी यदि नाभिदेश है तो भूलोक के प्रधान पूज्यदेव महाकाल हैं। सृष्टि का प्रारंभ उन्हीं से हुआ है-कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः। वस्तुतः भगवान्‌ महाकाल की प्रतिष्ठा और महिमा से जुड़े अनेक पौराणिक आख्यान मिलते हैं, जिनसे अवंती क्षेत्र में शैव धर्म की प्राचीनता के संकेत मिलते हैं । शिवपुराण के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल के प्रथम चरण में हिरण्याक्ष की विजययात्रा के दौरान उसके सेनापति दूषण ने अवंती पर आक्रमण किया था। उस समय उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। पुरोहितों ने इस संकट के निवारण के लिए भगवान्‌ शिव की पूजा की सलाह दी, तब राजा ने स्वयं शिवजी का चमत्कार एक ग्वाले की शिवभक्ति में प्रत्यक्ष देखा। ग्वाला जहाँ शिव की पूजा किया करता था। वहीं वैदिक अनुष्ठानपूर्वक शिव मंदिर की स्थापना करवाई गई। संभवतः वही भगवान महाकालेश्वर के देवालय की स्थापना का प्रथम दिन था। विभिन्न युगों की गणना के आधार पर यह समय आज से करीब ग्यारह हजार नौ सौ वर्ष पहले अनुमानित है। त्रेता युग में सम्राट भरत के मित्र चित्ररथ अवंती क्षेत्र के राजा थे। भरत की चौथी पीढी के राजा रन्तिदेव ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया था। त्रेतायुग में अयोध्या में राजा हरिद्गचंद्र हुए थे, उनसे कुछ ही समय बाद महेश्वर (माहिष्मती) में हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन जैसे प्रतापी सम्राट हुए, जो सहस्रबाहु के नाम से प्रख्यात हैं। उन्हीं के सौ पुत्रों में से एक आवंत या अवंती थे, जिनके नाम पर यह क्षेत्र अवंती कहलाया। त्रेतायुग में राम के पुत्र कुश स्वयं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए अवंतिका में आए थे।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने महाकालेश्वर का पूजन किया था। महाकालेश्वर की प्राचीनता को लेकर अनेक पौराणिक, साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं, जो शैव साधना की दृष्टि से इस स्थान की महिमाशाली स्थिति को रेखांकित करते हैं। महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, इसीलिए उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने से 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है। पुराणों का संकेत साफ है-'प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी।' मृत्युलोक के स्वामी महाकाल इस नगरी के तब से ही अधिष्ठाता हैं, जब सृष्टि का समारंभ हुआ था। उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल तो स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं-
 'नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः... इत्येषा तैत्तिरीश्रुतिः।'
 महाकाल का उल्लेख
ब्रह्माण्ड पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण सहित अनेकानेक पुराण एवं प्राचीन ग्रंथों में सहज ही उपलब्ध है। भागवत में उल्लेख मिलता है कि श्रीकृष्ण, बलराम और मित्र सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण कर स्वघर लौटने के पूर्व गुरुवर के साथ जाकर महाकाल की भक्ति भावनापूर्वक पूजा की थी। उन्होंने एक सहस्र कमल शिव जी के सहस्रनाम के साथ अर्पित किए थे।
विशिष्ट महिमा 
पुराणकाल में तो महाकालेश्वर की विशिष्ट महिमा थी ही, पुराणोत्तर दौर में प्रद्योत युग, मौर्य युग, शुंग, शक, विक्रमादित्य, सातवाहन, गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार, परमार, मुगल, मराठा आदि सभी युगों में वे बहुलोकपूजित रहे हैं। विभिन्न युगों में उज्जैन में विकसित कला परम्पराएँ भी शैव धर्म के विविधायामी रूपांतर का साक्ष्य देती आ रही हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की रत्नसभा के अनूठे रत्न महाकवि कालिदास (प्रथम शती ई. पू.) ने अपनी प्रिय नगरी उज्जयिनी और महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उनके समय में यह पुण्य नगरी अपार वैभव और सौंदर्य से मंडित थी। इसीलिए वे इसे स्वर्ग के कांतिमान खण्ड के रूप में वर्णित करते हैं- 'दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्‌'। कालिदास के पूर्व भी यह नगरी अवन्ती या मालव क्षेत्र की प्रमुख नगरी थी ही, इसे राजधानी होने का भी गौरव मिला हुआ था। यहाँ सम्राट का राजप्रसाद भी था, कालिदास ने जिसके महाकाल मंदिर से अधिक दूर न होने का केत किया है-
'असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।' 
उज्जयिनी के राजभवन और हवेलियाँ भी दर्शनीय थे, जिनके आकर्षण में मेघदूत को बाँधने की कोशिश स्वयं कालिदास ने की है।

कालिदास के समय उज्जयिनी शैव मत का प्रमुख केन्द्र थी। महाकवि के समय से शताब्दियों पूर्व से ही इस नगरी में शैव साधना एवं शैव स्थलों की प्रतिष्ठा रही थी। इसके अनेक पौराणिक साहित्यिक, पुरातात्त्विक एवं मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं। महाकवि कालिदास ने भी शैव मत की प्रतिष्ठा की दृष्टि से उज्जयिनी की महिमा को विशेष तौर पर रेखांकित किया है। उनके काल में उज्जयिनी की पहचान महाकाल मंदिर और क्षिप्रा से जुड़ी हुई थी। लोकमानस में महाकाल की प्रतिष्ठा तीनों लोकों के स्वामी और चण्डी के पति के रूप में थी। उनका मंदिर घने वृक्षों से भरे-पूरे महाकाल वन के मध्य में था। वनवृक्षों की शाखाएँ बहुत ऊपर तक फैली हुई थीं। मंदिर का परिसर सुविस्तृत था, जिसके आँगन में सायंकाल को महाकाल के अर्चन एवं संध्या आरती के बाद नृत्यांगनाओं का नर्तन होता था। उन नर्तकियों के पैरों की चाल के साथ-साथ मेखलाएँ झनझनाती रहती थीं। उनके हाथों में रत्न जटित हत्थियों वाले चँवर रहते थे। नर्तन-पूजन के पश्चात्‌ वे मंदिर से बाहर निकलती थीं। मंदिर के अन्दर शिव-कथा पर आधारित प्रस्तर-शिल्प भी थे। महाकाल मंदिर में साँझ की पूजा विशेष महिमाशाली मानी जाती थी। उस समय नगाड़ों के गर्जन के साथ महाकालेश्वर की सुहावनी आरती होती थी। उधर महाकाल वन के वृक्षों पर साँझ की लालिमा छा जाती थी, जो श्रद्धालुओं को मोहित कर देती थी। 
कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस प्रसंग को रेखांकित किया है। 
महाकाल मंदिरेर माझे
तखन गंभीरमन्द्रे संध्यारति बाजे।
महाकाल की पूजा पद्धति का संकेत भी कालिदास साहित्य में प्राप्त होता है। रघुवंश तथा मेघदूत से ज्ञात होता है कि महाकाल के सुप्रसिद्ध मंदिर में पशुपति शिव की प्रतिमा रही। सन्ध्या के समय उस पर धूप आ जाने से ऐसा लगता है, मानो उसने गजचर्म पहन लिया हो। इससे स्पष्ट है कि मंदिर में महाकाल की प्रतिमा इस प्रकार प्रतिष्ठित थी कि उस पर संध्या का प्रकाश पड़ता था। या तो वह प्रतिमा बिना छत के देवायतन में प्रतिष्ठित थी अथवा पूर्व-पश्चिम में गर्भगृह ऐसा खुला था कि भीतर की प्रतिमा पर पूरी धूप आती रहती थी। मेघदूत का एक श्लोक तो स्पष्ट संकेत करता है कि महाकाल मंदिर में नृत्य करते शिवजी की अनेक भुजाओं वाली प्रमुख प्रतिमा थी जिसे भवानी भक्तिपूर्वक निहार रही हैं।
पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।
नृत्यारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेह्णवां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या॥
कालिदास नीललोहित से मुक्ति की कामना भी करते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड (अध्याय-2) में नीललोहित का स्वरूप दिया गया है। तदनुसार उसमें पाँच मुख, दस भुजा, पन्द्रह आँखें, साँप की यज्ञोपवीत, जटा, चन्द्र और सिंहचर्म का वस्त्र बताया गया है। यह रूप महाकाल पशुपति का नहीं है। नटराज शिव की उज्जैन से प्राप्त आठवीं शती की एक खण्डित प्रतिमा ग्वालियर में सुरक्षित है। किन्तु कालिदास से यह प्रतिमा सदियों बाद बनी। कालिदास के युग में महाकाल की प्रतिमा रही, यह बृहत्कथा के संस्करणों से भी पुष्ट होता है। उसमें एक व्यक्ति महाकाल प्रतिमा के घुटनों पर सिर टिकाकर रोता है। उसमें महाकाल के हाथों की भी चर्चा है। मेघदूत में शिवलिंग का संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु ज्योतिर्लिंग अवश्य रहा होगा। पौराणिक परम्परा इस बात की बार-बार पुष्टि करती है।

गुप्त और हर्षवर्धन युग (335-848 ई.) में भी उज्जयिनी शैव मत का एक प्रमुख केन्द्र रही। महाकवि वाण ने अपनी कादम्बरी में उल्लेख किया है कि यहाँ महाकाल स्वरूप में शिव की आराधना की जाती है। यहाँ शंकर के अनेक मंदिर थे तथा प्रमुख चौराहों पर भी शिवलिंग स्थापित थे। यहाँ पर आधिपत्य रखने वाले यशोवर्धन, हर्षवर्धन जैसे अनेक शासक शिव के उपासक थे। हर्षवर्धन किसी भी सैनिक अभियान के पूर्व नील-लोहित शिव की पूजा किया करता था। यहाँ शिव के साथ शक्ति की पूजा का भी समन्वय रहा है।गुप्त युग में महाकाल मंदिर अत्यंत प्रशस्त और भव्य था। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के अनेक मंदिर थे। मंदिरों पर स्वर्ण-कलश और श्वेत पताकाएँ सुशोभित होती थीं। उनकी भित्तियों पर देव, दानव, सिद्ध, गंधर्व आदि के चित्र बने थे। यहाँ शिव की कामदेव के रूप में भी पूजा की जाती थी।

महाकाल वन जहाँ देश-दुनिया के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है, वहीं एक दौर में यहाँ आक्रांताओं ने हमले भी किए। एक मान्यता के अनुसार 1235 ई. के आसपास आततायी शासकों ने मालवा पर हमले के दौरान उज्जैन को भी लूटा था। महाकाल मंदिर में भी लूट-खसोट की गई थी, जिसका उल्लेख अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है। परवर्ती काल में यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सद्‌भावना का केन्द्र भी बना। अनेक मुस्लिम शासकों ने महाकाल सहित उज्जैन के विभिन्न मंदिरों में पूजा-प्रबंध के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई। शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सहित एक दर्जन मुस्लिम शासकों की ऐसी सनदें मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शाही खजाने से महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों में पूजा आदि के लिए मदद की थी। देश के प्रमुख मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रदीप्त रहने वाला दीपक) लगाने की प्रथा रही है। उसका निर्वाह महाकाल मंदिर में आज भी हो रहा है। इस परम्परा के निमित्त 1061 हिजरी में सम्राट आलमगीर ने चार सेर घी रोजाना जलाने के लिए एक सनद के माध्यम से राशि स्वीकृत की थी, जो धार्मिक सहिष्णुता का नायाब उदाहरण है।

मराठाकाल में राणोजी शिंदे के दीवान रामचंद्र बाबा सुखटनकर (या शेणवी) ने उज्जयिनी में धार्मिक पुनर्जागरण किया। उन्होंने 1730 के आसपास महाकाल के वर्तमान मंदिर, रामघाट, पिशाचमुक्तेश्वर घाट आदि का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार पुराणोक्त चौरासी महादेव तथा अनेक शाक्त तथा शैव स्थलों के जीर्णोद्धार या नवीन प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य भी मराठाकाल में संभव हुआ। सिंधिया राज्य के संस्थापक महादजी ने महाकाल मंदिर और उसके पुजारी वर्ग का आस्थापूर्वक पोषण किया। भोज, ग्वालियर, होल्कर राज्य के राजवंशियों की ओर से महाकालेश्वर के पूजन आदि के लिए निरंतर सहायता प्राप्त होती रही थी।

वर्तमान महाकालेश्वर मंदिर एवं परिसर सुविस्तृत, विशाल और अलग-अलग युगों की कला संपदा को सहेजे हुए है। महाकाल के दक्षिण मूर्ति शिवलिंग की विस्तीर्ण रजत निर्मित जलाधारी अत्यंत कलामय और नागवेष्टित निर्मित हुई है। शिवजी के सम्मुख नंदी की पाषाणमूर्ति धातुपत्रवेष्टित विशाल प्रतिमा है। गर्भगृह में पश्चिम की ओर गणेश जी, उत्तर की ओर भगवती पार्वती और पूर्व में कार्तिकेय की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में निरंतर दो नंदादीप तेल एवं घी के प्रज्वलित रहते हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए पुरातन गलियारे के साथ ही अब विशाल सभागारयुक्त गलियारे बन गए हैं, जहाँ एक साथ सैकड़ों लोग दर्शन-आरती का आनंद ले सकते हैं महाकालेश्वर के ठीक ऊपरी भाग में ओंकारेश्वर की प्रतिमा है तथा सबसे ऊपरी तल पर नागचन्द्रेश्वर की। नागचंद्रेश्वर के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही होते हैं।

महाकालेश्वर परिसर में वृद्धकालेश्वर (जूना महाकाल), राम-जानकी, अवंतिका देवी, अनादिकल्पेश्वर, साक्षी गोपाल, स्वप्नेश्वर महादेव, सिद्धि विनायक, हनुमान, लक्ष्मी-नृसिंह आदि सहित अनेक लघु मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में विशाल कोटितीर्थ कुंड भी है, पुराणों में जिसकी बड़ी महिमा वर्णित है। कुंड के चहुँ ओर अनेक शिव मंदरियाँ हैं, जो इस स्थान के कला वैभव को बहुगुणित करती आ रही हैं। महाकाल मंदिर तथा आसपास के अन्य मंदिरों में परमारकालीन शिलालेख लगे हुए है जिनमें राजाभोज, उदयादित्य, नरवर्मन, निर्वाणनारायण, विज्जसिंह आदि राजाओं के भग्न शिलालेख प्राप्त हुए है। एक शिलालेख गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का भी है, जिसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ जिसकी स्मृति में यह अभिलेख मंदिर में लगवाया होगा। परमारकाल की अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ मंदिर क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं, जिनमें शेषशायी विष्णु, गरुडासीन विष्णु, उमा-महेश, कल्याण सुंदर, शिव-पार्वती, नवग्रह, अष्टदिक्‌पाल, पंचाग्नि तप करती पार्वती, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। पूर्व में यहाँ परमार राजाओं की प्रतिमाएँ भी लगी हुई थीं जिनमें से एक वर्तमान में विक्रम कीर्ति मंदिर स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।
महाकाल मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले शिव पर चिताभस्म* का लेपन किया जाता है। यह पूजा महिम्नस्तोत्र के 'चिताभस्मालेपः' श्लोक के अनुरूप होती है। इस पूजा हेतु किसी विशिष्ट चिताभस्म की निरंतर प्रज्वलित रहने वाली अग्नि से योजना की जाती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः प्रातः आठ बजे, मध्याह्‌न में और सायंकाल के समय महाकाल की पूजा, शृंगार आदि किया जाता है। रात्रि में 10 बजे शयन आरती होती है। विभिन्न व्रत, पर्व और उत्सवों के समय महाकालेश्वर मंदिर का परिसर असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था की विशेष केन्द्र बन जाता है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के चार और भादौ मास के दो सोमवार पर निकलने वाली सवारियाँ देश-दुनिया के भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। इन सवारियों का मूल भाव यही है कि महाकाल राजाधिराज हैं और वे उज्जयिनी की मुखय सड़कों पर निकलकर प्रजा का हाल-चाल जानते हैं। इसी प्रकार की सवारियाँ कार्तिक मास में निकलती हैं। दशहरा पूजन के लिए महाकाल नए उज्जैन में पहुँचते हैं। महाशिवरात्रि, हरिहर मिलाप, रक्षाबंधन, वैशाख मास, नागपंचमी जैसे अनेक पर्वोत्सव भी इस मंदिर को विशेष आभा देते हैं। बारह वर्षों में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के समय लाखों श्रद्धालु महाकालेश्वर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं।

महाकाल कालगणना के अधिष्ठाता देव भी है। खगोलशास्त्रीय दृष्टि से उज्जयिनी का महत्त्व सुदूर अतीत से बना हुआ है। इसी स्थान से कर्क रेखा गुजरती है, जो भू-मध्य रेखा को काटती है। इसी दृष्टि से उज्जैन को पृथ्वी और कालगणना का केन्द्र माना गया है। क्षिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। यह स्थान महाकाल मंदिर से अधिक दूर नहीं है। स्पष्ट है कि महाकाल पृथ्वी के केन्द्र बिन्दु पर स्थित हैं और वे ही कालगणना के प्रमुख यंत्र
 'शंकु यंत्र' के मूल स्थान हैं।

श्लोक से लोक तक सभी की आस्था का केन्द्र हैं महाकालेश्वर। लोक और लोकोत्तर सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्तगण अपनी-अपनी इच्छा उनके सम्मुख रखते हैं और उनकी पूर्ति के लिए मानवलोकेश्वर महाकाल का भंडार कभी रिक्त नहीं होता है।
डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
आचार्य एवं कुलानुशासक
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म.प्र.)

धन्यवाद सहित समाज हित में जानकारी प्रदान करने हेतु प्रकाशित। 

            *वर्तमान में प्राप्त जानकारी अनुसार चिता भस्म का प्रयोग नहीं किया जाता हे 
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