रास्ता वही है, जिस रास्ते से महापुरुष गए हैं|औदीच्य-समाज में भी कुछ ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनके पदचिन्हों पर हम चल सकें। बात आज से लगभग एक सदी पहले की है | श्रीमंत जीवाजीराव सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया का शासन था|
महाराजा सिंधिया के व्यक्तिगत जीवन और राजकाज में कुछ अड़चनें आने लगी! राजपुरोहित ने महाराजा को सलाह दी कि समस्याओं के समाधान के लिए उज्जैन में नागबलि-नारायणबलि क्रिया का अनुष्ठान करवाया जाए| साथ में यह भी आशंका थी कि यदि अनुष्ठान विधिपूर्वक संपन्न नही हुआ तो घोर अनिष्ट की भी संभावना हो सकती थी|उज्जैन के तपोनिष्ठ - कर्मकांडी ब्राह्मण पंडित केशव भट्ट से अनुष्ठान
करवाने का अनुरोध किया गया| नियत दिन और समय पर महाराजा सिंधिया लाव - लश्कर के साथ क्षिप्रा के पावन तट पर पहुंचे तो प्रजा जय-जयकार करने लगी| हाथी से उतर कर महाराजा सिंधिया ने तेजस्वी पंडित केशव भट्ट को प्रणाम किया तो आशीर्वाद मिला| अनुष्ठान प्रारम्भ होने के कुछ देर बाद ही अचानक मौसम में परिवर्तन होने लगा| तेज हवा के बवंडर ने कार्य में विघ्न दाल दिया| सब लोग अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गए| पंडितजी समझ गए कि यह किसी अदृश्य शक्ति का प्रकोप है| उन्होंने जैसे ही अंजली में जल लेकर, कुछ मन्त्रों का उच्चारण कर जल आकाश में फेंका तो, बवंडर शांत हो गया| उज्जैन की प्रजा महाराजा को छोड़कर महाराज केशव भट्ट की जय-जयकार करने लगी|महाराजा सिंधिया भी बहुत प्रभावित हुए| अनुष्ठान-क्रिया संपन्न होने पर महाराजा ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल दक्षिणा के रूप में पंडितजी को दिया और कुछ गर्व से बोले- ' पंडितजी आपको बहुत से यजमान मिलें होंगे, पर मेरे जैसा दक्षिणा देनेवाला यजमान आपको नही मिला होगा|'महाराज के दर्प से भरे शब्द सुनकर पंडितजी के स्वाभिमान को ठेस लगी! उत्तर देना भी जरुरी था, अत: उन्होंने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल क्षिप्रा नदी के जल में फेंक दिया और बोले- " महाराज आपको भी मेरे जैसा पंडित आजतक नही मिला होगा!" ऐसा कहकर पंडितजी ने अपना गमछा कंधे पर डाला और घर की ओर प्रस्थान करने लगे| महाराजा सिंधिया को स्थिति को समझने में देर नहीं लगी| भूल का ज्ञान होने पर उन्होंने पंडितजी को दूसरा स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल विनम्रता से देने का प्रयास किया पर, सब बेकार! यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मण किसी के वश में हुआ है!
क्षिप्रा का जल और समय बहता गया| एक दिन सिंधिया के एक मंत्री पंडितजी के घर पहुंचे और अनुनय-विनय कर लगभग ५०० बीघा जमीन का दानपत्र पंडितजी के घर सोंप कर प्रायश्चित कर गए| यह कोई कहानी नही एक सत्य घटना है! पंडित केशव भट्ट के वंशज श्री सोहन भट्ट के परिवार के पास वह दानपत्र देखा जा सकता है| आज भी संध्या आरती के समय पावन क्षिप्रा की लहरों पर प्रकाश प्रतिबिंबित होकर चमकता है तो, जल में स्वर्ण मुद्राओं का भ्रम हो जाता है और शंखनाद में पंडित केशव भट्ट की प्रशस्ति सुनाई देती है|
मोहन Rawal
प्रस्तुति : मोहन रावल
इंदौर
उद्धव जोशी---- अनमोल जानकारी उपलब्ध कराने के लिये कोटि कोटि धन्यवाद् .उज्जैन के गर्भ में और भे अनेक जानकारिया छिपी होगे ,जिनके खोजना होगा।.
प्रबोध पंड्या--- स्वर्ण नाग मूर्ति जो पूजा में रखे गए थे वे आज भी भट्ट परिवार के पास पूजित है
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उदीच्य या औदीच्य का अर्थ है, उदीची या सूर्य के उदित होने की दिशा, भारत का उत्तर पूर्व भू भाग, जहाँ प्रमुख रूप से हिंदी भाषियों का निवास है|
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