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दहेज में कार या हाथी बांधा द्वार ?

कन्या और कार
         
          पुत्री परिवार की पावनता, कन्या कलियों की मुस्कार, और बेटी बचपन का संस्कार, जैसे अलंकरणों से युक्त है।  बेटी माँ की गोद से लेकर गोदावरी के किनारों तक अठखेलियाँ करते हुवे पुष्पित,पल्लवित हो,  कन्या का रूप ग्रहण कर लेती है । इसी बेटी पुत्री, कन्या को कवियों, साहित्यकारों,कथाकारों, सन्तो, महन्तों ने मासूम शब्दों,आदर सूचक वर्णनों एवं  उपदेशों से नवाजा है। ‘‘बेटी बेटा एक समान ‘‘ के पाठ का पय पान सभी लोग एक दूसरे को कराने में लगे हैं,  और बेटीयों पर जुल्म की इन्तहा भी  कर रहे हैं। दोनों का  महत्व अपनी अपनी जगह है किसी को समझाने से कोई असर नहीं होगा। समय आने पर परिवार खुद ब खुद इसका एहसास कर लेता है।
          आज हम ऐसे अनछुए पहलू को छूने का छल करेगें जिसकी देनदारी जोरों पर है। पिता जब बेटी को सखी सहेलियों के साथ देखता है तो उसे धानी चुनरिया ओढाने, मेंहदी लगाने तथा पीले हाथ करने की चिन्ता सताने लगती है । बेटी के  लिऐ योग्य वर तलाशने में वह जमीन आसमां एक कर देता है और ढूंढ कर ले आता है गुदडी के लाल को। संबंधों की आपसी चर्चा में बेटे का बाप बडी नम्रता से बेटी के पिता को कहता है. कि हमें तो बस परिवार के लिए योग्य बहू चाहिए और कुछ नहीं। जवाब में बेटी का बाप भी कहता है,  कि मेरे पास भी कंकू और कन्या ही है,  और कुछ नहीं! बात पक्की होने के बाद तो दोनों पक्ष अपने लिए हुए संकल्पों को भूला कर शाही शादी की तैयारी में लग जाते हैं।        
           पुरातन काल से कन्यादान में कन्या को रकम,कपडे,बर्तन आदि  दिये जाते रहे हैं।  आज भी वही परम्परा जारी है , किन्तु समय के करवट बदलने से भौतिक वस्तुओं को कन्यादान जिसे आज कल दहेज कहा जाने लगा है, इतनी अधिक मात्रा में दिया जा रहा है ,जिसके कारण वर पक्ष को अपने  ही घर में सोने की जगह ढूढनी पडती है! 
पुत्री को पीहर में सीख दी जाती है, कि ससुराल में जाकर सास ससुर की सेवा,पति से प्यार,देवर देरानी, नंनद से दुलार, अतिथि सत्कार और चौके-चूल्हे से आत्मीयता बनाये रखना! पढी लिखी हो तो इन सबके साथ अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुऐ आर्थिक सहयोग देकर परिवार को सुखी सम्पन्न रखना।  इतनी अनमोल शिक्षा देने के बाद जब कन्यादान का ढिढोंरा पीट कर भौतिक संसाधनों को बस पर लाद कर बेटी को विदा किया जाता है तो शायद कडवाहट को भी सखी सहेली के रूप में भेज दिया जाता है । 
           बेटी का संबंध तय करने के पहले ही पिता व्दारा वर पक्ष की पारिवारिक स्थिति का चतुष्कोणीय जायजा लिया  जाकर  सन्तुष्ट हो जाता है कि बेटी का ससुराल भरा पूरा है ,किसी बात की कमी नहीं है। परिवार में सम्पन्नता और संवेदनशीलता दोनों है इसके बाद ही गणपती पूजा की जाती है।  जब घर भरा पूरा है तो फिर बेटी को अटेची से लगायत चैके चूल्हे का सामान देने का कारण यही समझ में आता है कि यदि दोनों भविष्य में परिवार से पृथक होते हैं तो पिता की दी हुई सामग्री काम में आयेगी ! बेटी को अच्छे संस्कार देने के बाद अलग होने की संभावना तो कम ही रहती है।
            कन्यादान तक तो सब ठीक ठाक है किन्तु कन्या के बाद अब ‘‘ वर-दान‘‘ में नई मंहगी कार देने की प्रथा चल पडी है। पहले उसको सजाया जाता है फिर विवाहस्थल पर प्रदर्शन के लिए रखा जाकर आने वाले मेहमानों की वाहवाही लूट कर अपने अहं की सन्तुष्टि की जाती है, फिर वर वधु को उसमें बिठा कर विदा किया जाता है। 
          कार और हाथी का खर्च बराबर होता है। विदाई के बाद पेट्रोंल, डीजल, मेन्टेनेन्स, ड्राइवर आदि  के खर्च की जवाबदारी दामाद के हवाले हो जाती है। कन्या के पिता व्दारा कार देने से पहले यह जानकारी नहीं ली जाती है कि बेटी के ससुराल में कार रखने की जगह, ड्राईविंग लायसेंस, दामाद की कार चलाने में रूचि है या नहीं। उनके घर में पहले से कार होने पर भी कार देना, आदि अनेक प्रश्न कुलबुलाने लगते है। पिता यदि सक्षम है, या कर्ज लेकर  यदि कार देना जरूरी समझता है तो कार के बेकार होने तक सारे खर्च की जिम्मेदारी भी लेना चाहिए! नव दम्पत्ति को नई कार सौप कर कर्जदार बनाना क्या उचित है ! वधु पक्ष व्दारा कार देना और वर पक्ष व्दारा कार का लेना व्यक्तिगत कारण है, इसमें अन्य की दखलन्दाजी नहीं हो सकती। किन्तु विचार देने में कोई हर्ज नहीं, जिन्हे कोई ग्रहण करें या उनकी आलोचना करे,यह सामने वाले की समझ पर है। 
          एक बात और, यदि कन्या को लक्ष्मी देने में आपकी खासी रूचि है तो उसके नाम से वांछित राशि सावधि जमा योजनायों में लगा दें जो दम्पत्ति सहित उनके परिवार के लिए सुरक्षा निधि के रूप में  सुरक्षित रहेगी। समय आने पर वे इस राशि का उपयोग कर ज्यादा प्रसन्न रह सकेगें । कार की उम्र ज्यादा नहीं होती और सावधि योजनाओं की उम्र कभी समाप्त नहीं होती है ।
जय गोविन्द माधव।
उद्धव जोशी,उज्जैन
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