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वर्चस्व की लड़ाई में नेतृत्व का कर्तव्य ।


 वर्चस्व की लड़ाई में नेतृत्व का कर्तव्य । 
   युग परिवर्तन के साथ समाज सेवा भी व्यावसायिकरण की और गति कर रही है।  अभी तक समाज सेवा के क्षेत्र में माना जाता रहा है, की समाज सेवा, सम्पूर्ण समाज को दिशा देने का एक सार्थक प्रयत्न है, अत: समाज सेवकों को सम्मानित किए जाने की परंपरा हो गई। उन्हे मंच पर आसीन कर गुणगान कर शाल-श्रीफल, उपाधियों, आदि विविध प्रकारों से सम्मानित किया जाता देख, अनेक व्यक्तियों में महत्वाकांक्षा का जन्म होने लगा। उन सभी का समाजसेवा के प्रति उत्साहित होना भी एक स्वाभाविक भी था। 
नवागन्तुको ने आगे आकर उसी स्थापित समाज सेवा की धारा में प्रवेश करने, और सहयोग कर उसी समाज सेवा के कार्य को आगे भी बड़ाया। परंतु पूर्व प्रतिष्ठित (स्थापित) वरिष्ठ समाज सेवकों ने जैसे उस कार्य को केवल अपने वर्चस्व तक ही बांध दिया, इसके वजाय कि वे आगे बढ़कर नई संस्था का गठन, नया सोच का जन्म, नया और अधिक कठिन समाज सेवा कार्य, हाथ में लेते, और पुराने कार्यों को अनुगामियों को सोंप देते, तो समाज को उनके अनुभवों से लाभ होता।  इससे समाज सेवा की उचाइयों पर पहुचने का अवसर भी मिलता। यह नहीं हुआ।
 देखा यह गया की जो अधिक धन देते हें, या चाटुकारिता करते हें, उन्हे समाज के प्रमुख सेवकों में सम्मलित कर उन्हें पद और प्रतिष्ठा देकर सम्मान किया जाने लगा।  फिर जब समाज द्वारा उनका सम्मान नहीं हुआ तो परस्पर सम्मान की परम्परा का सूत्रपात हो गया। यही से समाज में अवांछनीय गतिविधियों का प्रवेश हो गया।  
   अध्यक्षतामंच, और माईक पर अधिकार के अभिमान में चूर नेतृत्व द्वारा वास्तविक और कुशल कार्यकर्ताओं को अवसर न दिया जाकर, केवल धन दाताओं और चाटुकारों को पद, सम्मान मंच और माइक देने का परिणाम भी यही होना था, इसने संघर्ष ने जन्म दिया। नए नेतृत्व के साथ पूर्व से ही चल रहे समाजिक कार्यो के लिए ही नये मंच बनाने लगे। प्रतिस्पर्धा के चलते एक दुसरे की नीचा दिखाने और अपने कार्य को अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध करने का अनंत प्रवाह सा प्रारम्भ हो गया। लगभग एक समय में एक या नजदीकी स्थान पर दो या अधिक् एक जैसे कार्यक्रम का आयोजन, और जिस संस्था में पूर्व के प्रयासों के परिणाम स्वरूप संगठन या धन की वृद्धि हुई उस पर येन केन प्रकारेंण अधिकार के लिए प्रयास किये जाने लगे।
    सब अपनी अपनी जगह स्वयं को सही मान रहे हें, कुछ तटस्थ दिख कर इनके बीच में खाई और  बढाने में लगें हें, ताकि कल पुनर्गठन पर अपना वर्चस्व स्थापित कर सकें। आखिर क्या हो रहा है यह सब, क्या यही समाज सेवा है।
   पाहिले भी एसा कई बार हुआ अब फिर से हो रहा है, और होता भी रहेगा। इससे कुछ समाज का हित हो न हो, अहित जरुर हो रहा है, इस प्रक्रिया के चलते कुछ वास्तविक काम करने वाले सन्यास ले लेते हें, और मोका परस्तों के लिए मैदान खाली छोड़ देते हें। अब फिर से संभावना भी यही दिख रही है, इस परिस्थिति से भयभीत होकर कुछ अच्छे संगठक जिनके कारण संस्था ने उन्नति की नई संभावनायों को जन्म दिया,  वे इससे पाहिले की क्रियान्वयन हो, इसके पूर्व ही समाज कार्य से दूर होने या सन्यास लेने की बात करने लगे हें।
    हमारा आग्रह है, समाज के सभी वर्ग से समाज हित में अपने विचारों पर एक बार फिर से मंथन करें, सोचें की वे जो कर रहे हें, उससे समाज का कितना हित होगा। कहीं एसा न हो की इतिहास उन्हें समाज उन्हें भविष्य में दोषी करार दे दे।  समाज को व्यापार या अहंकार का केंद्र न बनायें, यह उनके अपने बच्चो और उनकी आने वाली पीडी के लिए भी हानिकर होगा।   
   नेतृत्व और अन्य सभी प्रमुख अपने कार्यक्रमों में, विशेषकर परिचय सम्मलेन विवाह सम्मेलन, प्रतिभा सम्मान और अन्य सभी इस प्रकार के आयोजनों में  मंच माइक छोड़ कर नीचे दर्शक दीर्घा में बेठे, स्वयं मंच पर न बेठें, और अपने कार्यक्रमों में शाल श्रीफल माला स्वीकार करना छोड़ दें। वैसे भी यह विचार करें की जिसके आयोजन कर्ता आप स्वयं हें उसके आयोजन में यदि  शाल श्रीफल, हार-फूल स्वीकारते हें तो आप स्वयं ही स्वयं को सम्मनित करते हें, क्या यह उचित है?  
    नेतृत्व से अनुरोध है, की वह अपनी शक्ति, सामर्थ्य, और विद्वता का उपयोग कर अनुशासन हींन तत्वों पर सक्षम अंकुश स्थापित करें। एसा करने से ही उनके द्वारा पूर्व में किये सार्थक प्रयास फलीभूत होंगे, समाज उन्नति करेगा, आने वाले पीढियां उन्हें याद रखेंगी।  
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