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स्वगत- बड़े काम की छोटी बातें

Audichya Bandhu औदीच्य बंधु: स्वगत- बड़े काम की छोटी बातें:
स्वगत      
स्वगत      
(स्वयं  से 
05/07/2012

कुछ तो लोग कहेंगे!  
अपने जख्मो को ढक रखा जाना जरुरी हे, क्योकि  भिनभिनाती मक्खियाँ घाव को भरने नहीं देंगी,  बिना किसी से मदद की आशा किये घाव का इलाज भी स्वयं को ही तलाशना होगा, क्योकि इस संसार में सभी के अपने दुःख भी कुछ कम नहीं वह उन्हें भुलाने के लिए ही वह दूसरों पर हँसता हे | दूसरों के घाव पर मलहम कोई भी लगा कर  सांत्वना भी बहुत से  दे सकते हें पर ठीक करने का प्रयत्न तो स्वयं को ही करना होगा| क्योकि घाव पर नमक छिड़कने वालों की संख्या भी कुछ कम नहीं होती | 
मधु सूदन व्यास 

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अक्सर किसी भी भी बात का मतलब हर व्यक्ति अपने विचार अनुसार लगा लेता हे| दुखी व्यक्ति यह समझता हे की  उन पर हंसा जा रहा हे , उसका मजाक बनाया जा रहा हे ,सुखी व्यक्ति को वही बात ज्ञान पूर्ण और बहुत सुन्दर प्रतीत होती हे|
01/07/2012



21/06/2012

20/06/2012
जो व्यक्ति धन के पीछे भागता हे उसे सुख नहीं मिलता, जो व्यक्ती सुख के पीछे भागता है, उसे ज्ञान नही मिलता, पर जिसने ज्ञान पा लिया उसे सब कुछ मिल जाता हे |

11/06/2012
अनुभव  में आया हे की  निस्वार्थ भाव से कहे गए सार्थक शब्दों पर अक्सर कोई द्यान नहीं देता , जबकि  स्वार्थ के विचार से कहे और बोले गए शब्द अधिक आकर्षित करते हें|  इसी प्रकार निरर्थक वाक्य अधिक लिखे , बोले और सराहे जाते हें| यदि सभी हर प्रकार के शब्दों पर सराहना नहीं , विचार करे तो क्या जीवन की सभी मनोकामनाए स्वत पूरी नहीं हो जाएँगी|
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परमात्मा ने सभी को सब कुछ दिया हे पर हम ही हें जो अपनी जरुरत और शक्ति से अधिक  और समय से पूर्व पाना चाहते हें| पोधे की तरह धीरे-धीरे विकसित होकर जड़ ज़माने की अपेक्षा जल्दी आसमान छू लेना चाहते हे, शायद  इसीलिए आंधियां हमें जल्दी उखाड़ देती हें|
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03/06/2012
अक्सर में कुछ न  कुछ प्रश्न खड़े करता रहता हूँ|
पर कभी भी उत्तर नहीं सुझाता | कुछ  उत्तर देता हूँ , पर शायद ही कभी स्वयं उन उत्तरों से संतुष्ट होता हूँ! कभी  बीच में आकर बातो को रफू (बातो का अर्थ समझाना) करता हूँ, कभी कुछ न कर नहीं सिर्फ दर्शक/पाठक भर होता हूँ! कभी में  इन सबमें टाइम पास मनोरजन भी तलाश करने लगता हूँ! बीच बीच में चुटकी  काट(नई टिपण्णी से) कर उकसाता भी हूँ! और भी कई तरह का स्वांग भी रच कर सामने रहने की कोशिश करता रहता हूँ! पर आखिर इन सब बातों से मुझे  क्या हासिल होता हे ? क्या यही समाज सेवा हे? क्या मेरे मन की इर्षा या प्रवृति ही ऐसी बन गई हे और इससे क्या स्वयं सहित, किसी का भी  भला हो सकता हे ? इस प्रश्न का उत्तर में ढूंड  नहीं पाता, और विचलित होकर सभी को दोष देने लगता हूँ| आखिर में क्या हूँ? एक समाज सेवकहूँ ? नेता हूँ? या एक हिप्पोक्रेट? या साधारण व्यक्ति? यदि केवल साधारण मनुष्य हूँ,  तो फिर कोई मुझे आखिर महत्व ही क्यों दे| महत्त्व न मिलने से में विचलित क्यों रहूँ?
01/06/2012
"दोस्ती" का जबाब एक दम से दे देना जल्दबाजी और  मुश्किल  बात हे, जो बीज धीरे धीरे पनपकर वट वृक्ष बनता हे वह  दीर्घ जीवी होता हे, खरपतवार के बीज पानी पाकर उग तो जल्दी  जाते हें पर जल्दी ही सूख भी जाते हें| दोस्ती का पेड़ ऊगने ,बड़ने,पुष्पित और पल्लवित होने के लिए सहिष्णुता,विश्वास और धेर्य की आवश्यकता होती हे | जब दोस्ती के पेड़ में फल-फुल लगते हें तो उनकी मिठासऔर सुगंध सारे संसार को पता चल जाती हे , और किसी को भी " दोस्त विषयक" प्रमाण या जबाब देने की जरुरत ही नहीं पड़ती|

31/05/2012
दोस्ती का दंभ अपने आप में एक छल हे,  विश्वास योग्य  दोस्त बड़े ही पुण्य कर्मो से मिलते हें| जब कभी सच्चे दोस्त  मिलते हें तब हम उन्हें पहिचान नहीं पाते, क्योकि सच्ची सलाह या राह सभी को कठिन लगती हे| दोस्त का परामर्श अधिकतर को स्वार्थ या धोखा लगता हे, और हम उनसे दूरी बना लेते हें, और सच्चा दोस्त मिलने से पाहिले ही बिछुड़ जाता हे और पता भी नहीं चलता| क्या यह सच नहीं? 
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19/05/2012
क्या सत्य केवल पूजा की वस्तु हे? यदि नहीं तो तो लोग झूठ बोलने बाले, बड़ी बड़ी डींगे हाकने वालों को बड़ा आदमी क्यों मानते हें ? 
यदि झूठ बोले बिना सुख/लाभ  नहीं मिल सकता तो असत्य मेव जयते क्यों नहीं  कहा जाता ? क्या सत्य मेव जयते का नारा केवल प्रदर्शन की वस्तु हे| यदि नहीं तो कितने सांसद/ नेता इस पर अमल करते हें?

17/05/2012
में कभी कभी
दूसरों के दोष देख देखकर दुखित होता हूँ, और उपदेश करने लग जाता हूँ, पर थोड़ी देर में ही में अपने अन्दर देखने लगता हूँ, तो पाता हूं कि खुद मेरे अन्दर सेकड़ों दोष भरे पड़े हें| भीतर से एक आवाज कहती हे "पाहिले इन अपूर्णताओं को दूर करने का प्रयास करो,जेसे जेसे ह्रदय निर्मल होगा वेसे वेसे एक अलोकिक तेज का अविर्भाव होता जायेगा ,तब तुझे न तो किसी के दोष दिखेंगे और न उपदेश की जरुरत होगी,सब कुछ स्वयं ही संपर्क से ठीक हो जायेगा|" में कब मुक्ति पा सकूँगा अपनी इन अपूर्णताओं से ?
15/02/2012
हमारी प्रवृति ही कुछ एसी बन गई हे  "कुछभी " जो मेरे पास यदि नहीं हे,और वह पडोसी के पास भी नहीं हो तो ही  में संतुष्ट रहता हूँ यदि पडोसी के पास हे तो में उसे पाने के लिए नहीं उसे पडोसी के पास न रहने देने का प्रयत्न करता हूँ| अन्यथा में जमीन आसमान एक भी कर सकता हूँ| फिर भी में अपने को श्रेष्ट समझता हूँ| क्या में श्रेष्ट  हूँ? यदि नहीं तो क्या में इस दोष को हटाने का प्रयत्न करूँगा?

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संतोष सुखी जीवन के लिए आवश्यक हे , पर यह भी सच हे की असंतुष्टि की प्रवृति नया और बड़ा पाने की उम्मीद बनाती हे, ज्ञान/ विज्ञानं आदि सभी ओर  यदि संतुष्टि मिल जाती  तो तरक्की रुक जाती | संतुष्टि/ असंतुष्टि दोनों ही जीवन के लिए जरुरी हें| हम इर्षा वश असंतोष न करे ओर उन्नति हेतु  कभी संतुष्ट होकर न बेठे|

12/05/2012
उपदेश देते देते भी ह्रदय में परिवर्तन आ सकता हे | इसलिए किसी उपदेशक  को यह कहना की पाहिले स्वयं पालन करो फिर दूसरों को सिखाओ, कहने की बजाय ये कहा जाये की उपदेशक यदि स्वयं उस उपदेश का पालन करता रहे तो उपदेश का प्रभाव अधिक होता हे | और जब तक  हम नहीं जानते की उस उपदेशक का ह्रदय परिवर्तन हो चुका हे या नहीं, तब तक आक्रामक टीप करना भी  उचित प्रतीत नहीं होता| इसमें अहंकार होता हे|जो उपदेशक के सम्मान को ठेस पहुचता हे ,  इससे उस व्यक्ति में जागने की कोशिश करता हुआ इन्सान फिर  से सो सकता हे| अत लाइक कर उत्साह वर्धन तो होना ही चाहिए| अच्छे प्रयासों का प्रोत्साहन /प्रचार ही एक डाकू को "बाल्मीकि"बना सकता हे|
09/05/2012
अल्प ज्ञानी अपने ज्ञान के छोटे से भंडार के माध्यम से अज्ञानियों को प्रभावित कर तो लेता हे पर इसके कारण स्वयं को समझने की भूल भी कर बेठता हे| पर जब दो अल्पज्ञानी आपस में विवाद करते हें तब वे अपनी श्रेष्टता एक दुसरे पर थोपना चाहता हें| फिर यही बात दोनों के बीच आत्म सम्मान का कारण बन कर आपसी मनमुटावों को जन्म देती हे| जिसका अंत एक दुसरे को नीचा दिखाते हुए शत्रुता को जन्म देता हे | यह शत्रुता मनुष्यता को  मार डालती हे| और जब व्यक्ति मनुष्य नहीं तो पशु के सामान नहीं हो जाता | हम क्योकर अपने विचार दूसरों पर थोपें| क्यों न उनकी बात भी सुने | एक दुसरे की बात सुन कर विवादित बातो का हल डूंडा जा सकता हे इससे ही न केवल ब्रामणत्व(विद्वता) बढेगा अल्प ज्ञानी की श्रेणी से पास होकर ज्ञानी की श्रेणी में जाने का मोका मिलेगा| क्या हम/आप यह मोका जाने देंगे? सोचिये और करिए|

19/04/2012
तात्कालिक प्रतिक्रिया एक परिस्थति वश अचानक उत्पन्न विचार होता हे जो अक्सर सच नहीं होता| अल्प ज्ञानी अपनी पर्तिक्रिया तुरंत प्रघट करना चाहता हे, क्योकि उसे  भय  होता हे की कही  कोई उसके मन में आ रही बात कह कर श्रेय नहीं ले ले, इसकी जल्दी में वह समय असमय भी नहीं देख पता| 
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 दुसरे शब्दों में इस बात को यूँ  भी कहा जा सकता हे, की मुर्ख ही तात्कालिक प्रतिक्रिया कर फिर उसी पर  स्थिर  रहकर स्वयं को सही सिद्ध करेने का प्रयत्न करते हें|  जबकि विद्वान् विचारक हर बात को तोल-मोल कर,सही समय पर ही बोलते हें| 
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ज्ञान/विद्वता के प्रदर्शन के लिए शोर (प्रचार) करना जरुरी नहीं ! वह अपने आप में ही इतनी सक्षम हे की सभी को अपनी और खीँच ही लाता हे| जो भी शोर (प्रचार) से प्रदर्शित किया जाये वह ज्ञान नहीं हो सकता| ज्ञान या विद्वता की पहिचान होने में समय लगता हे, जबकि उद्दंडता,दुष्टता बिना प्रचार के ही सबको पता चल जाती हे| 

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उद्दंडता को प्रचार तव मिलता हे जब उसको महत्व दिया जाये, यदि उसकी अनदेखी कर दी जाये अन्यों में विस्तार नहीं होता, उदंड प्रश्न-उत्तरों को शांत करने का एक ही तरीका हे, 'कोई भी प्रतिक्रिया नहीं' किया जाना| इससे महत्वहीन होकर उद्दंडता शांत हो जाती हे|

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पर अनुभव में आया हे कि  प्रतिक्रिया के अभाव में भी उद्दंडता,सामान्य तय शांत नहीं होती,पर लगातार अन्देखापन उसे वर्दाश्त नहीं होता इससे वह आपकी और से ध्यान हटा कर केवल प्रतिक्रिया करने वालों की और लगा देगा|

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१५/०४/२०१२
अक्सर  कुछ पड़कर सुनकर या देखकर,  यह मान लेना की  मन में जितनी  भी बातें उपज रही हें वह सब सच होती हें, और जितनी बातें हम कह और कर जाते हें, सब सच ही हमारा बड़ा भ्रम हे।
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एक तो सदा सच बातें उसीके ह्रदय में स्फुरित होती हें जिसका  जीवन परम सात्विक हे। जो सर्वथा राग-द्वेष से रहित हे, दुसरे यदि सत्य स्फुरित हुआ भी तो उसे प्रघट करने का       साधन मुख, या कलम(सही भाषा) अपूर्ण होने के कारण प्रघटित बात सत्य ही हे?,यह दावे से नहीं कहा जा सकता।
14/04/2012
युवावस्था वेग, और वृध्दावस्था विवेक की प्रतिनिधि होती हे। वेग और विवेक के उचित सामंजस्य से सफलता नामक रसायन बनता हे। वेग की अधिकता से शक्ति व्यर्थ जाती हे,विवेक की अधिकता से अकर्मण्यता आती हे।,         
13/04/2012
अपने कार्यों के परिणाम की अपेक्षा हम अपने ह्रदय की प्रवृत्तियों को ही क्यों न देखते रहें? फल तो आखिर वेसा ही निकलेगा, जेसा हमारा भाव होगा ? फल के सम्बन्ध में हम लोगों को धोखा दे सकते हें, पर अपने मनोभाव के सम्बन्ध में तो हम अपने को धोखा नहीं दे सकते!
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जिसे अपने दोष और त्रुटियाँ दिखाई पड़ती हें , वह "नम्र" होता हे। जिसे दूसरों के दोष,ऐब, और बुराइयाँ दिखने की आदत हो वह "उद्धत"।
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जो समय असमय अपने को 'वली' और निर्भय होने की घोषणा करता रहता हे वह वास्तव में उसकी निर्बलता,और भय ही बार-बार उससे यह कहलाता हे।
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12/04/2012 
एक लेख पर टिप्पणी देखी इसमें एक बाबा (तथाकथित संत) के ऊपर ढोंगी होने का आरोप लगाया गया था| पर टिप्पणी करने वाले की प्रोफाइल में भी वही सब कुछ था | संत रूप में फोटो,और अपने बारे में सभी का दुख दूर करने का दावा? यह संत बन कर धन कमाने का नया रोजगार आजकल बड़ा ही सफलता पूर्वक चल रहा हे| प्रात टी.वी. खोलें तो दस चेनेल पर १०० संत,अपनी अपनी बात अलग अलग समय पर कहते हुए नजर आते  हें| पर सबका एक ही अर्थ अंत में निकलता हे की "माया मोह त्याग दो, हमारी संस्था  को दान कर दो" | जीवन के कष्टों से परेशान "आम आदमी" सुख की खोज में उनकी बात से प्रभावित  होकर अपनी क्षमता से अधिक उन्हें देकर सुख पाना चाहता हे? पर क्या मिलता हे यह बताने के लिए उसके पास कोई भी प्रचार का साधन नहीं होने से अन्यो को ऐसे बाबाओं से सावधान भी नहीं कर पता और इन "संतों" का  सिलसिला चलता ही रहता हे| राजनेतिक भी उनके यहाँ  आ रही भीड़ में अपना 'वोट बैंक ' खोजते रहते हें| हमारे देश से कब होगा इस पाखंड का अंत?
११/०४/२०१२ 
संत कबीर जी का एक प्रेरक वाक्य हे "निंदक नियरे रखिये आगन कुटी छबाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाव"| इसको दोहरा कर निंदक अपनी बात को कह कर अन्य के स्वभाव को तो सुधरने की प्रेरणा तो  देता हे पर स्वयं का क्या ? क्या निंदा करने का स्वभाव उसकी अपनी कमजोरी या इर्षा का प्रदर्शन तो नहीं? और यह यह इर्षा स्वय को मानसिक रोगी तो बनाने नहीं जा रही हे| दूसरों की निंदा करने के वजाय यदि वे स्वय की क्रिया कलाप देख कर अपने स्वभाव को निर्मल करने का यदि प्रयास करेंगे तो उनका अधिक और तात्कालिक प्रभाव दूसरों पर पड़े बिना नहीं रहेगा, इससे दूसरों के साथ स्वयं भी निर्मल हो सकेंगे| सकारात्मक सोच यही हे|
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किसी भी व्यक्ति/जाती/संस्था से यह पूछना की उनने किसी के लिए क्या किया ? इसके पाहिले वे स्वयं से पूछे की मेने किसी और के लिए क्या किया ?

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व्यक्ति चाहे कितनी भी चतुराई बरते,उसके भाव/बोलने का तरीका,या टिपण्णी, उसके भावों को उजागर कर देती हे,
की "कही कुछ जलने की गंध"आ रही हे। क्यों न हम किसी के भी  अच्छे काम के लिए खुश होना सीख जाते| यह हमारे मानसिक स्वास्थ के लिए भी अच्छा होता हे| इसका प्रभाव शारीरिक स्वास्थ पर भी पड़ता हे|
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१९/०३/२०१२
यदि विनोद पूर्ण व्यंग,स्नेह पूर्ण उपालंभ और मधुर आलोचना से 'मेरा साथी 'सजग नहीं होता हे,और अपने कर्तव्य का यथावत  पालन नहीं करता हे, तो कठोर वचन कहने की अपेक्षा मेंअपनी आत्म शुद्धि,आत्म ताड़ना,का उद्योग क्यों न करूँ?
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क्रोध और आतुरता के मूल में क्या अहंकार नहीं हे? क्रोध प्राय:तभी   आता हे,जब कोई हमारी इच्छा की पूर्ति नहीं करता। पर क्या दूसरा मनुष्य इसके लिए बाध्य हे?  एसा समझ लेना क्या मेरा अहंकार नहीं हे? और क्या आतुरता इस बात को नहीं सूचित करती  कि'मनुष्य-समाज' को तथा प्रक्रति को वश में रखने कि सत्ता मुझे प्राप्त हे, और में जब भी जो चाहे कर सकता हूँ?
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13/03/2012
अक्सर लोग कहा करते हें,"सत्य तो कडवा होता हे" मेरी धारणा यह हे, की सत्य और कटुता 'एक साथ' नहीं रह सकती।
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मनुष्य या तो गुस्से में,या निराशा में, या वह धीरज खोकर कडवी बात अपने मुहं से निकालता हे, सत्य बोलने वाला इन तीनो दोषों से बचता हे।
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जब कोई मनुष्य दिन-रात यही सोचे की  ''मेरी बात का प्रभाव दूसरों पर पड़े" तो क्या वह अपनी मर्यादा पार नहीं करता।
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मनुष्य केवल इतना ही क्यों न सोचे,की "मेरा कर्तव्य क्या हे ? और में उसका पालन कहाँ तक कर रहा हूँ?" जो भी अपना कर्तव्य का पालन करता हे, उसका प्रभाव अपने साथियों, और दूसरों पर क्यों न पड़ेगा?

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10/02/2012
कुछ लोग कहा करते हें की जब तक की -"हमको पूरी स्वतंत्रता नहीं दी जाती तब तक, हमारा मन काम में नहीं लग सकता ; पर देखते हें की कार्यरत और परिणामत:स्वतन्त्रता का अर्थ हो जाता हे "शिथिलता"।
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जो नियम-बद्धता को नही मानता, वह वास्तव में स्वतंत्रता को भी नहीं मानता,। प्रकति स्वतंत्र हे;क्योंकि वह नियमबद्ध हे।
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जो दूसरों पर विश्वास नहीं करता ,वह अपने पर विश्वास रखने में भी कच्चा होना चाहिए।
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०६/०३/२०१२ 
दुनिया में एक भी एसा आदमी पैदा नहीं हुआ जिसने, अपने अनुमान के अनुसार, सफलता होती हुई देखी हो। अत: केवल शुभ और सत्कर्म  किये जाएँ उसका अच्छा फल जरुर अच्छा रहेगा। 
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यदि हमारी किसी बात का असर किसी पर  नहीं होता, तो  हमारे रोष का पात्र वह नहीं , हमारी कमजोरी और त्रुटियाँ  हें। 
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जब तक मनुष्य यह कहता रहता हे की -"मुझे किसी ने क्या समझा हे? में भी कुछ ताकत रखता हूँ! में यह करके दिखा दूंगा "। तबतक उस में विकार की प्रबलता समझनी चाहिए।   : जब मनुष्य यह कहने लगे  - "भाई में तो कुछ भी नहीं हूँ, -उस दयामय सर्व शक्तिमान  के हाथ का एक खिलौना भर हूँ, उसकी दया और शक्ति दुनिया में कोन सा चमत्कार नहीं दिखा सकती?" तब यह समझना चाहिए की विचार और ज्ञान की सत्ता जमने लगी हे।
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05/03/2012
जिसे समय पर खाना-खाने की सुध रहती हे, जो कभी बीमार नहीं पड़ता,जिसका वजन घटता नहीं रहता, जिसे दूध फल खाने के पेसे मिल जाते हें,जो साफ सुथरे कपडे तरतीव से पहिनता हे,जिसे हास्य-विनोद के लिए समय मिल जाता हे,-वह केसा समाज-सेवक या देशभक्त ?  जिसे रात-दिन  समाज/देश की चिंता रहती हो उसे भला इन बातों का होश   केसे रह सकता हे?
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सेवक को पेट की चिंता नहीं होनी चाहिए! जो पेट की चिंता करता हे वह सेवा नहीं कर पता।
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कष्ट से डरना और बड़े काम करने की अभिलाषा रखना! बदनामी से डरना और सुधारक बनने की इच्छा रखना!- यह सब वैसा ही हे जेसा बिना  पुण्य किये स्वर्ग पाने की लालसा रखना  ।
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03/03/2012
कार्यकर्त्ता(समाज का काम करने के इच्छुक) यदि सेवा के मतवाले हों, तो 'काम' उनके लिए कदम कदम पर मोजूद हे। यदि वे सेवा का 'शौक' पूरा करना चाहते हों तो प्रलय काल तक उनकी शिकायत का कोई इलाज नहीं। 
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कार्य संचालक उन्ही को सेवा योग्य समझते हें, जो उनकी कड़ी कसोटी पर "सौ टंच" साबित हों। पर उन कच्चे और सच्चे लोगों का क्या हो; जो सह्रदयता का हाथ आगे बड़ने से आगे चल कर परिपक्व हो सकते हें, पर उसके अभाव में "सेवेच्छु-जीवन" गुलामी का जीवन हो सकता हे? क्या इन बेचारों के लिए सेवा का दरवाजा बंद रहना ही ठीक हे?
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०२/०३/२०१२  
एक मित्र ने कहा "औदिच्य बन्धु " तुमने निकाली तो खूव पर 'टिका केसे सकोगे, मेने कहा मेरे सामने 'टिका' रखने का तो सवाल ही नहीं हे। मेरे सामने तो सिर्फ एक ही बात हे - इसके द्वारा  समाज की अधिक से अधिक सेवा किस प्रकार से हो? जिस दिन उसमें से सेवा का भाव निकल जायेगा, उस दिन ही टिकाये रखने का सवाल खड़ा होगा। इसलिए अभी कोई चिंता नहीं।
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एक सज्जन लिखते हें,"औदिच्य बन्धु" समाज जनों को जीवन भर निशुक्ल मिलना चाहिए। आप त्याग करके मुझे निशुक्ल प्रदान करवा दीजिये।" -यदि सभी समाज जन इतने उस्ताद हो जाये और हमें त्याग की कसोटी पर कसने लगें,तो 'औदिच्य-बन्धु को अपना जीवन ही त्यागना पड़े।
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संस्थाएं धन पर नहीं चलती; निस्वार्थ सेवा,अविचल लगन,और अटूट श्रद्धा पर चलती हें।
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समाज सेवक कार्यकर्त्ता शिकायत करते हें,"काम नहीं मिलता,कोई हमें काम नहीं देता। कार्य संचालक उलाहना देते हें, काम करने वाले नहीं  मिलते। कहिये किसका दुःख सच्चा हे?
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 कुछ बंधुओ की प्रतिक्रिया आई हे की यह सब  में उनसे कहता हूँ,शायद यह वहम उनके चोर मन के अहम् को ठेस पहुचता हो, यह तो बस मेरे मन में आते प्रश्नों का जबाब में स्वयं को ही (स्वगत) दे रहा हूँ, क्षमा चाहता हूँ! बुरा न माने! 
--मधूसूदन व्यास  

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