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क्रान्तिकारी भगवान परशुराम


परशुराम की लड़ाई वर्ण या जाति से नहीं,
अपितु रजोगुणी अत्याचारों और उच्छृंखल
 वासनाओं से रही है। 
 
  क्रान्तिकारी भगवान परशुराम
प्रस्तुत कर्ता - 
प्रकाश पांडेय उज्जैन 

हिन्दुओं के चरित्रनायकों में परशुराम अपनी विलक्षणता के कारण प्रसिद्ध हैं। वे विष्णु के छठे अवतार हैं। अवतारों के क्रम पर दृष्टि डालें तो मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह और वामन के बाद परशुराम के रूप में एक पूर्ण मानव सत्ता में आया।

परशुराम की पहचान एक क्रान्तिकारी ब्राह्मण योद्धा के रूप में है। उनका जन्म वैशाख शुक्ल तृतीया को पुनर्वसु नक्षत्र में हुआ था। उनके पिता जमदग्नि वैदिक युग के अंतिम ऋषि होने के साथ-साथ ब्राह्मण युग के जन्मदाता थे। माता रेणुका क्षत्राणी थी। इस तरह परशुराम की रगों में ब्राह्मण और क्षत्रिय कुल के रक्त का संगम था। वे विश्वामित्र की भगिनी के पौत्र थे। रूमण्वान, सुषेण, वसु और विश्वावसु उनके भाई थे। परशुराम सबसे छोटे थे।

परशुराम वैदिक युग और ब्राह्मण युग के संधि पुरूष हैं। एक ऎसा पुरूष जो ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज के संयोग से अवतरित हुआ। वह ब्राह्मणत्व पर तो गर्व करता है, किन्तु कर्म में सदा क्षत्रिय रहता है। क्षत्रियों के भुजबल को ब्रह्मतेज से कुंठित कर देने वाले परशुराम भले ही सहनशील हिन्दुओं के सर्वमान्य आदर्श न रहे हों, परन्तु परशुराम का लोहा कभी भी ठंडा नहीं पड़ा। एक ब्राह्मण को अन्तत: योद्धा होना चाहिए या उदासीन वानप्रस्थ, यह प्रश्न प्रथम और अन्तिम बार परशुराम ने ही खड़ा किया। 21 बार क्षत्रियों का वध करने वाले परशुराम ने सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लिया था। 
यह किसी भी ब्राह्मण ऋषि के जीवन में घटित होने वाला अकेला प्रसंग है। विजित पृथ्वी कश्यप को यज्ञ की दक्षिणा में देकर अपने हाथ कटा देने वाले परशुराम जैसा दानशील दूसरा नहीं हुआ।

परशुराम उच्चतम ऋषि परम्परा में थे। उनका आत्मबल अपरिमित था। वेश ऋषि का था, किन्तु कर्म शूरवीर का। 
तुलसीदास ने लिखा है "सांत वेषु करनी कठिन, बरनि न जाई सरूप" (अर्थात् शान्त वेश है, परन्तु करनी बहुत कठिन)। स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। 

परशुराम सम्पूर्ण ब्राह्मणत्व को चाहने वाले पुरूषार्थी हैं। उनके भीतर ब्राह्मण भी है, क्षत्रिय भी। वे क्षत्रिय का उच्छेद चाहते हैं, क्योंकि वह रजोगुण प्रधान है। सतोगुण की सार्वभौम प्रतिष्ठा के लिए जो क्रान्ति अपरिहार्य है, परशुराम उसके जनक हैं। शुद्ध सत्व ही परशुराम का अस्त्र है।

परशुराम की लड़ाई वर्ण या जाति से नहीं, अपितु रजोगुणी अत्याचारों और उच्छृंखल वासनाओं से है। इसीलिए जनक की सभा में राम के सत्य को पहचानते ही वे हथियार डाल देते हैं-

"जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्ति गात। जोरि पानि बोले वचन ह्वदय न प्रेम अमात।"

अपने जीवन में केवल श्रीराम का ही लोहा उन्होंने माना। दशावतारों में परशुराम के बाद राम का ही उल्लेख है। परशुराम का विकसित चरित्र ही श्रीराम है। परशुराम से मिला वैष्णवी तेज ही राम की पूंजी है। परशुराम ने गंधमादन पर कठिन तपस्या की थी।

ब्रह्मविद्या उन्हें भृगुवंश की विरासत में मिली थी। अस्त्र विद्या आशुतोष महादेव ने सिखाई और परशु विद्या गणेशजी ने। इस तरह परशुराम सर्वशास्त्र सम्पन्न हुए।

परशुराम ने हैहयराज कार्तवीर्य सहस्रार्जुन का समूल नाश किया। सहस्रार्जुन जमदग्नि के आश्रम को पथभ्रष्ट कर कामधेनु का बछड़ा लेकर चला गया था। परशुराम ने प्रतिकार में सहस्रार्जुन की भुजाएं काट दी। प्रत्युत्तर में कार्तवीर्य के कुटुंबियों ने जमदग्नि को मार डाला। बस, उसी क्षण परशुराम ने क्षत्रियों के संहार की प्रतिज्ञा की। जमदग्नि के वध का समाचार सुनकर परशुराम को लगा, जैसे सतोगुण पर रजोगुण हावी हो गया है। परशुराम ने सत्व की रक्षा के लिए क्रोध की अनिवार्यता को नैतिक करार दिया। बाली और रावण के विनाश में यही नीतिशास्त्र राम के काम आया। 
Prakash R C Pandey

परशुराम की ब्रह्मनिष्ठ वीरता का संदेश कृष्ण ने गीता में अर्जुन को दिया। परशुराम ने बताया कि योद्धा में ही भगवान होने की योग्यता है। अन्याय को सहन करने वाला और दबकर पड़ा रह जाने वाला मनुष्य मरा हुआ है। भले ही उसने उच्च कुल में जन्म लिया हो, वह सम्मान का अधिकारी नहीं है। वहीं पौराणिक गाथाओं में परशुराम को क्रूर, आतंकी व मातृहन्ता निरूपित किया गया है, उनके मंदिर नहीं बनने दिए गए, जो उचित नहीं है। इस पर फिर से विचार की जरूरत है।
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