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रूद्र महालय खंड काव्य-औदीच्य ब्राम्हणों की उत्पति की गाथा।

                                      रूद्रमहालय  खंड काव्य डिजिटल संस्करण 

रूद्र महालय  खंड काव्य
जय रुद्र महालय [खण्ड काव्य ]

"जय गोविन्द माधव"
औदीच्य बंधुओ का गोरव सिद्धपुर गुजरात का रूद्र महालय के निर्माण और विध्वंस की गाथा जो औदीच्य ब्राम्हणों की उत्पति की गाथा भी हे ,इस काव्य मय वर्णन में मिलती हे| यह पढ़ने योग्य हे
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औदीच्य ब्राम्हणों की उत्पति की गाथा

आभार
भारतीय संसक्रति में "शिव" एवं ब्राह्मण दोनों का शीर्षस्थ स्थान है। शिव को महादेव एवं ब्राह्मण को भूमिदेव की संज्ञा से अलंकृत किया गया है| भूमिदेव ब्राह्मणौ में भी शीर्षस्थ सुशोभितऔदीच्य ब्राह्मण है|
 औदीच्यों के इष्टदेव "रुद्र" का प्रतिक्रम रुद्र महालय | इस क्रम से इस प्रतिक्रम का महत्व स्वयं प्रतिपादित हे| रुद्र महालय के भग्नावशेष औदीच्य ब्राह्मण की स्थिति के ही प्रतिरूप हे, पर बात भिन्न हे की यह कटु सत्य किसी के हृदय में टीस उत्पन्न करता है|
आज औदीच्य ब्राह्मण का ध्यान इस सिद्धपीठ की ओर आकर्षित हुआ है| एसा प्रतीत होता है की इस पवित्र पीठ के दुर्भाग्य रूपी कामदेव को भस्म करने के लिए स्वयं शंकर ने तीसरा नेत्र खोला है|
ज्ञातीय बंधु रुद्र महालय के इतिवृत्त, वैभव, एवं पतन से परिचित हो सकें, इस हेतु मैने यह लघु प्रयास किया हे| इस रचना के अनुकूल मनोवृति बनाने में एवं ज्ञान का स्तर उच्च स्थिति में लाने में, मैथली शरण गुप्त कृत "सिद्धराज", के एम मुंशी के उपन्यास "पाटन की प्रभुता" "गुजरात के गोरव" को आधार बनाया। सिद्धपुर निवासी श्री दशरथ लालजी शुक्ल, श्री प्रेम वल्लभ जी शर्मा, अरुण प्रसाद जी त्रिवेदी का विशेष सहयोग रहा हे| इसके साथ ही श्री स्थल प्रकाश, ब्राह्मण उत्पत्ति मार्तण्ड, औदीच्य प्रकाश{महुआ से प्रकाशित}, औदीच्य बंधु , औदीच्य संदेश,  प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता वल्लभ विध्यानगर निवासी श्री अम्रत वसंत पण्ड्या, पं॰ राधेश्याम द्विवेदी एवं कमालगंज फरुखाबाद निवासी श्री स्व पं हरीशंकर जी दवे, उदयपुर के श्री पं भीमशंकर जी , बंदायु के डॉ गंगा सहाय शर्मा, ओर डॉ गोवर्धन नाथ शुक्ल अलीगढ़ वि॰विध्या॰, श्री श्यामू सन्यासी जी,  का भी विशेष सहयोग रहा हे| इस रचना के रसास्वादन करने के पश्चात यदि एक भी ज्ञातिय बंधु के ह्रदय में, इस प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान के प्राचीन वैभव के अनुकूल समायोजित करने हेतु रंच मात्र भी प्रेरणा ली तो में अपना प्रयास सफल समझूँगा। 
संसार के समस्त कार्यकलाप "शंकर" की ही प्रेरणा से होते हें। मानव तो निमित्त मात्र है। इस प्रकार स्वयं को इस रचना का निमित्त स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है। कभी-कभी निमित्त को भी निमित्त की अपेक्षा रहती है, मुझ निमित्त के भी निमित्त हें, श्री डॉ॰ गंगा सहाय प्रेमी एवं श्री राजेंद्र कुलश्रेष्ठ। एक संप्रति गुना के शासकीय महाविध्यालय में कार्यरत थे, एकाधिक ग्रन्थों के रचयिता एवं व्याकरणाचार्य की उपाधि से विभूषित  श्री प्रेमी को मेने अपने मानस में काव्य कलागुरु का स्थान दिया है। इस प्रकार से उनकी प्रेरणाऍ एवं सहयोग पर मेरा स्वयं सिद्ध अधिकार है। 
उक्त ग्रंथ के लिखने मे उपरोक्त के अतिरिक्त जाने-अनजाने अनेक व्यक्तियों का सहयोग भी रहा मेँ उनका आभारी हूँ|
जय शिव। जय गोविंद माधव। 
डॉ॰ ओ॰ पी॰ व्यास,
 नई सड़क गुना म॰ प्र॰
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प्राक्कथन 
जय रुद्र महालय (खण्ड काव्य)
डॉ॰ ओ॰ पी॰ व्यास गुना म॰ प्र॰ द्वारा रचित इस पुस्तक मे औदीच्य ब्राह्मण समाज के गोरव सिद्धपुर गुजरात का रूद्र महल के निर्माण और विध्वंस की गाथा जो औदीच्य ब्राम्हणों की उत्त्पति की गाथा भी हे, इस काव्य मय वर्णन में मिलती हे|
10 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध मे गुजरात की राजधानी पाटन थी| महाराजा मूलराज सोलंकी प्रतापी राजा हुए थे | सिद्धपुर (श्री स्थल) प्राचीन सिद्धपीठ थी| महाराज मूलराज ने अपने मातुल (मामा) सामंत सिंह का वध कर पाटण की राजगद्दी प्राप्त की थी| सम्पूर्ण भारत के सर्वाधिक एश्वर्यशाली राज्य कायम किया| वृद्धावस्था में पश्चाताप वश "रुद्र महालय" जिसमें एक सहस्र शिव लिंगो वाला एक सहस्र मंदिरों का विशाल रुद्र महालय या रुद्र की माला के समान मंदिर बनवाने का बनाने का का विचार उनके मन मे आया |
इस संबंध में निम्न पद प्रसिद्ध हे |
"सुत सोलंकी वंशनों,  कपटेलीध्यों  राज,  रुद्रमाल,  आरम्भियों,  पातक  टलवावास |
संबत अग्यार से ओगणी से,सोलंकी सुत जाण, रुद्रमाल स्थापना माघ मास परमाण|
क्रष्ण पक्ष ने चतुर्दशी, वार सोम निरधार, शंकर सधरे पुणिया। नाम शंभू जुगधार|
सिद्धपुर, पातक नाशनी पुण्य सलिला सरस्वती नदी के पावन तट पर स्थित हे| महर्षि कर्दम की तपोभूमि हे| जगन्माता देवहुति का मुक्ति स्थान हे| सांख्ययोगाचार्य कपिल मुनि का जन्म स्थान हे| यहीं सरस्वती तट पर महर्षि दाधीचि का आश्रम हे| इस स्थान पर महाराजा मूलराज ने तत्कालीन उत्तर भारत या उदीच दिशा से 1037 अति उच्च विद्वान ब्राम्हणों को बुलवाकर सिद्धपुर में सरस्वती के तट पर रुद्रयाग (रुद्र यज्ञ) करवाया गया था| ओर मंदिर निर्माण प्रारभ किया था| ये ही सब अति विद्वान उत्तर दिशा से आने के कारण उदीच कालतर में सहस्त्र औदीच्य ब्राम्हणों के नाम से जाने गए| स्मरणीय हो की पूर्व में सभी ब्राम्हण ऋषियों के नाम से जाने जाते रहे थे पर जेसे जेसे ब्राम्हणों की संख्या वृद्धि होती गई आदिगुरु शंकराचार्य जी ने देश-भेद, स्थान भेद आदि द्वारा कान्यकुब्ज/सरयुपारीय आदि किया गया| इसी कड़ी में आगे औदीच्य ब्राम्हण भी कहलाए गए
इस मंदिर का पूर्ण निर्माण चोथी पीढ़ी में महाराज जयसिंह ने किया| इस समय महाराज जयसिंह द्वारा प्रजा का ऋण माफ किया गया ओर इसी अवसर पर नव संबत चलवाया जो आज भी सम्पूर्ण गुजरात मे चलता हे| ई॰ सन 2012 वर्ष मेँ गुजराती संबत 2058 [૨૦૫૮] हे|
इस रुद्र महालय में एक हजार पाँच सो स्तभ थे | माणिक मुक्ता युक्त एक हजार मूर्तियाँ थीं| इस पर तीस हजार स्वर्ण कलश थे| जिन पर पताकाएँ फहराती थी| रुद्र महालय में पाषाण पर कलात्मक "गज" एवं "अश्व" उत्कीर्ण थे| अगणित जालियाँ पत्थरो पर खुदी थीं|
कहा जाता हे यहाँ सात हजार धर्मशालाएँ थीं| इनके रत्न जटित द्वारों की छटा निराली थी | मध्य में एकादश रुद्र के एकादश मंदिर थे| वर्ष 995 में मूलराज ने रुद्रमहालय की स्थापना की थी | वर्ष 1150(ई॰स॰1094) में सिद्धराज ने रुद्र महालया का विस्तार करके "श्री स्थल" का "सिद्धपुर" नामकरण किया था|
महाराज मूलराज महान शिव भक्त थे| अपने परवर्ती जीवन में अपने पुत्र चावंड को राज्य सोप कर श्री स्थल (सिद्धपुर) में तपश्चर्या में व्यतीत किया| वहीं उनका स्वर्गवास हुआ|
आज इस भव्य ओर विशाल रुद्रमहल को खण्डहर के रूप मे देखा जा सकता हे| विभिन्न आततायी आक्रमण कारी लुटेरे बादशाहों ने तीन बार इसे तोड़ा ओर लूटा| एक भाग में मस्जिद बना दी| इसके एक भाग को आदिलगंज (बाज़ार) का रूप दिया इस बारे में वहाँ फारसी ओर देवनागरी में शिलालेख हे|
वर्तमान में रुद्रमहल के पूर्व विभाग के तोरण द्वार चार शिव मंदिर ओर ध्वस्त सूर्य कुण्ड हे | यह पुरातत्व विभाग के अधीन हे|
प्रस्तुत खंड काव्य में इस सबका सारा विवरण रोचक ओर काव्यात्मक किया गया हे| सिद्धपुर मे सम्पन्न हुए सहस्राब्दी महोत्सव के अवसर पर जगदगुरु शंकराचार्य श्री श्री निरंजन देव तीर्थ, गो भक्त श्री शंभू महाराज, तत्कालीन शिक्षा मंत्री सुश्री हेमा बहन आचार्य , गृह मंत्री श्री प्रबोध भाई रावल, श्री रश्मि त्रिवेदी [कोमुदी फिल्म निर्माता मुंबई], श्री पुष्पेंद्र भट्ट श्री बलवंत भाई, श्री पं राधेश्याम द्विवेदी मथुरा, डॉ. ओम नारायण पंडया उज्जैन, श्री एस॰एल॰ पाठक, श्री ब्रह्मानन्द आचार्य कानपुर, डॉ॰ प्रमोद दवे,   आदि, अनेक विद्वानो ओर विशाल जन समूह के सम्मुख इस का वाचन लेखक डॉ ओ॰पी॰ व्यास गुना के द्वारा किया गया था| जिसे एक साथ बड़ी करतल ध्वनि से सराहा गया ओर बाद मे लगभग सभी वक्ताओ ने प्रशंसा की|
सिद्धपुर मे सम्पन्न हुए सहस्राब्दी महोत्सव समारोह के आयोजको में सिद्धपुर के विद्वान ओर प्रसिद्ध लेखक श्री पंडित प्रेम वल्लभ शर्मा जी थे। 
इस हेतु डॉ ओ पी व्यास को विशेष रूप से सम्मानित भी किया गया था| कोमुदी फिल्म द्वारा निर्मित "रुद्र महल" नामक गुजराती फिल्म में डॉ ओ॰ पी॰ व्यास को उनके इस एतिहासिक ज्ञान के कारण परामर्शदाता भी नियुक्त किया गया।
डॉ मधु सूदन व्यास
एम आई जी 4/1 प्रगति नगर उज्जैन म।प्र।
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रूद्र महालय
खंड काव्य

डॉ॰ ओ॰ पी॰ व्यास
नई सड़क गुना म॰ प्र॰
मंगलाचरण

श्री गण नायक शारदा ब्रह्मा विष्णु महेश
हौं कपालु वे व्यास पर मिटें अविद्या क्लेश ॥1॥
आओ याद करें हम सब मिल अपने गत इतिहास को।
भूत  काल  के उस वैभव को प्राप्त हुआ जो ह्रास को॥2॥
श्री सिद्धपुर (श्री स्थल) महात्म्य
सिद्धपुर प्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र है सिद्धौं का‚ सरस्वती के तट पर मनु ने बसाया है।
'कर्दम' 'कपिल' 'दधीचि' का तप स्थल; स्व.अस्थिओं से बज्र बनवाया है।।
बिन्दुसरोवर मुक्तिधाम माँ देवहुती का पौराणिक नाम श्री स्थल पाया है।।
"विशाल रुद्रमाल" था, कभी यहां रहा "व्यास" दर्शनों से जन्म सफल पाया है॥3॥
सरस्वति  तट  पर  स्थित  गुजराती  श्री स्थल  प्रदेश।
अब वही सिद्धपुर कहलाता साधना पीठ अतिशय विशेष॥4॥
जिसकी महिमा को, निगमागम वेदादि शास्त्र सब गाते हैं।
 पावन जिसकी रज लेने को यात्री गण प्रतिदिन जाते हैं5॥
प्राचीन काल से स्थित था इस थल पर मन्दिर शंकर का।
द्वादष जोर्तिलिगों  के सम परिगणित तेज प्रलयंकर का॥6॥
जिस सरस्वती की महिमा को सुर नर मुनि निश-दिन गाते हैं।
लेते ही नाम त्रिवेणी का भव वन्धन सब कटजाते है॥7॥
यह पाप मोचिनी सरस्वती शुभ सलिला का सुन्दर प्रदेश।
 कर्दम महर्षि की तपो भूमि माँ देवहुति का मुक्ति देश॥8॥
आचार्य कपिल जो सांख्य योग के, जग में जाने जाते है।
यह जन्म स्थली उन्हीं की है, ऋषियों में माने जाते है॥9॥
आश्रम है यहां कपिल मुनि का,  है विन्दुसरोवर तीर्थ यहां।
 स्थित है देवहुती माता की मोक्ष प्राप्ती की भूमि यहां ॥10॥
संस्कृति का आद्य पीठ है यह, है कर्म-भूमि यह सिद्धौं की।
जगती में इसकी महिमा है, गणना है परम प्रसिद्धों की ॥11॥
सरस्वती - महात्म्य
सरिता सरस्वति के महात्म्य को कौन नहीं जग में जाने।
 इसके गुणगान जगत में हैं, सब वेद पुराणों ने माने॥12॥
जो ब्रह्म सदन से पथ्वी पर, अवतरित हुई कल्म हरने।
हर पातक जहां नष्ट होता, आई उद्धार स्वयं करने॥13॥
इस सरस्वति के ही तट पर, ऋषिवर दधीचि का आश्रम है।
जिसकी महिमा जग मैं फैली, है एवं सतत सनातन है॥14॥
जैंसे प्रयाग मैं बना हुआ है मन्दिर वेणी-माधव का।
 त्योही श्रीस्थल में शोभित, देवालय गोविन्द-माधव का॥15॥
गुर्जर-प्रदेश में सुविख्यात, सदियौं से तीन देव मन्दिर।
 "श्री सोमनाथ" ओर "रुद्र माल", "मौढ़ेरा" भव्य सूर्य मंदिर॥
श्रीस्थल में ही मातृ-गया का, श्राद्ध सदैव किया जाता।
 सम्मान गया ने जो पाया, वैसा ही इसे, दिया जाता॥17॥
 महाराज मूलराज
दशमी शताब्दि का उत्तरार्द्ध, पाटन में राजा मूलराज।
सोलंकी कुल था धन्य हुआ, विस्मित राजाओं का समाज॥18॥
महान शिव भक्त महाराज मूलराज, सहस्र वर्ष पूर्व हुए पाटन में।
कच्छ काठियावाड़ लाट देश जीते, फिर मग्न हुए वे रुद्र के भजन में।।
श्री स्थल में की रुद्र की स्थापना रुद्र की भक्ति थी समा गई मन में।।
बुलवाये  एक सहस्त्र औदीच्य, ईसा के नौ सौ चौरानवै सन् में।
जय शिखर पुत्र था वनराजा, चावडा वंश में जन्मा था।
राज धानी बना था वसबाया, उसने अणहीलपुर पाटन था॥20॥
मामा का वध 
इन वन राजा सामन्त सिहं की,  बहिन से जन्म थे मूलराज।
चालुक्य वंश सौलकीं कुल किया, बहुत काल तक राज काज॥21॥
निज मातुल का वध मूलराज ने, राज्य प्राप्ती हित कर डाला।
वृद्धावस्था में इस वध ने, वेराग्य भाव से भर डाला॥22॥
आक्रमण कर दिया मूल राज ने, लाट देश को जीत लिया।
मदिंर कैलाश बहीं स्थित, शिव दर्शन जाकर वहां किया॥23॥
मातुल का वध था मूलराज के, अतंस्तल को काट रहा।।
यह पातक कैसे टले सोच कर, मन अत्यतं उचाट रहा॥24॥
गुरु कनथड़ देव से प्रायश्चित का परामर्श 
यह पाप दूर हो जिस विधि से, वह विधि गुरुवर ने बतलाई।।
औदीच्य ब्राह्मणौं की गाथा, सब वेद पुराणौ ने गाई॥25॥
हे राजन! उन्हे बुलाकर तुम, करवाऔ रुद्रयाग भारी।।
पातक सारे हौगें समाप्त, क्यौं लेकर मन बैठे भारी॥26॥
हे राजन दान उन्हे बहुविधि दे डालो जितना दे पाओ।
देवालय रुद्र शकंर का, श्री स्थल में बनवाओ॥27॥
यह देवालय यह रुद्रयाग, हर प्राणी के दुःख हर लेगा।
शिव लोक अन्त में प्राप्त करेगा, नाम अमर तू कर लेगा॥28॥
जो परम भक्त शकंर के हौं जो शिव स्मरण किया करते।।
शिव शम्भू औढदानी हें, हर पातक को पल में हरते॥29॥
मंत्रियों को उदीची  ब्राह्मण को बुलाने का निर्देश 
राजा के मन में स्थिर, कैवल्य प्राप्ती का यह उपाय।
प्रारम्भ रुद्रयाग कर, दिया प्रपंचों को बिहाय॥30॥
औदीच्य ब्राह्मण उत्पत्ति
संख्या में एक सहस्त्र सेंतीस औदीच्य ब्राह्मण बुलवाये।
वे वेद कर्म तप तेज युक्त मंत्री जा स्वयं जिन्हे लाये॥31॥

मथुरा, पुष्कर, कन्नोज, नेमिषारण्य, पुण्यथल हरिद्वार।
काशी, प्रयाग, कुरुक्षेत्र, के दिन भर करते मंत्रोच्चार॥32॥
जो एक सहस्त्र सेंतीस विप्र थे, सो सहस्त्रौदीच्य कहलाये।
करने को रुद्रयाग पावन थे, वे सब पाटन में आये॥33॥
ले भूमिदान कर रुद्रयाग, औदीच्य हो गये गुजराती।
महिर्षी बोधायन के नेत्रत्व में विक्रम संवत 1033 में
एक सहस्र सेतीस उदीची ब्राह्मण का स्वागत -मूलराज द्वारा । 
बन गई तभी से नवशाखा, "सहस्त्रौदीच्य" विप्र ज्ञाती॥34॥
चावण्ड पुत्र को राज्य सोंप, जग से विरक्त थे मूलराज।
संलग्नं शम्भू आराधन में , तट पर सरस्वती के विराज॥35॥
रूद्र महालय निर्माण
सम्वत् एक सहस्त्र सेंतीस, माघ द्वितीय दिन गुरुवार।
रुद्र माल आरम्भं हुआ, द्रव्य हुआ व्यय था अपार॥36॥
गगांधर चांपानेर नगर के शिल्पी उसके वास्तुकार।
संलग्न श्रमिक गण थे अनेक, निर्माण कार्य में निर्विकार॥37॥
श्री सिद्धराज जयसिंह
रुद्र याग प्रारम्भ हुआ। 
देवालय किन्तु अपूर्ण रह गया, मूलराज का निधन हुआ।
चौथी पीढी में धर्म प्राण, जयसिहं नृपति अवतरण हुआ॥38॥
दुर्लभ थे मूलराज आत्मज,  दुर्लभ के वल्लभ सेन हुए।
वल्लभ से जन्मे भीम देव, विख्यात कर्ण सदृश्य हुए॥39॥
मीनल देवी माँ भीम पिता से, पुरुष सिहं जयसिंह उपजे।
निर्माण पूर्ण कर मन्दिर का, पद सिद्धराज पा शंभु भजे॥40॥
निज जन्म में पूर्ण न कर सके, महाराज मूलराज पर मदिंर का काज थे।
चतुर्थ पीढी में कर्णसुत जयसिहं, धर्म धुरंधर कहाये सिद्धराज थे।
ब्राह्मणो को धन का लालच देते राजा। 
चौदह कोटी स्वर्ण मुद्रायें अर्पी, सजाये मंदिर में बहु साज थे।।
पूर्ण किया स्वप्न मूलराज का, दान दिये मंदिर को बहु गाजबाज थे॥41॥
 रूद्र महालय का वैभव
सौलह सौ स्तंभ तथा, प्रतिमायें अगणित अपार।
मणि मुक्ताऔं से जटित सभी, थे स्वर्ण कलश त्रिशतं हजार॥42॥
उत्त्कीर्ण अश्व गज प्रस्तर पर शोभाय मान अतिशय होते।
इस रुद्र महालय के दर्शन से,  जन-गण निज पातक खोते॥43॥
स्वर्ण घंटियौं के निनाद से, गुजितं रहता था अंबर।
शंख ध्वनि रुद्र स्तुतियों को, देती थी अतिशय मधुरिम स्वर॥44॥
थीं सवा लक्ष जालियां और, सहस्राधिक थीं पताकाऐं।
रानी ने ब्राह्मण स्त्रियॉं को दान लेने के लिए मना लिया। 
सप्त सहस्र धर्मशालाऔं के हित, व्यय की स्वर्णिम मुद्रायें॥45॥
सहस्राधिक शिवलिंग वहां, मणिऔं मुक्ताऔं से शोभित।
थे जिनमें बहुविध रत्न जटित, आकार सभी के सम परिमित॥46॥
शत् हस्ताधिक थी ऊचॉई, यह देवालय था अति विशाल।
रत्नों से जटित द्वार इसके, अति-भव्य था रुद्रमाल॥47॥
ग्यारहवे खण्ड की ऊचांई, अम्बर से बातें करती थी।
जिससे पनिहारन दिखतीं, पट्टन में पानी भरती थी॥48॥
शोभा शकंर की जैसी, केलाश शिखर पर व्याप्त रही।
वैसी ही रुद्र महालय को, भी वर्षों तक प्राप्त रही॥49॥
रूद्र माल विशाल हिम गिरि भाल सम, मन्दिर यह अति सुन्दर महा।
माल एकादश औ ज्योर्तिलिगं सहस्र, सम्पूर्ण मणि मुक्ता जटित था यह अहा।।
रुद्र महालया प्लान 
स्वर्ण मण्डित रूद्र प्रतिमा थी महत् महिमा रही , अतुल वैभव था नहीं जाता कहा।।
अभिषेक एक अनेक पातक हरे श्री स्थल में, है व्यास मर्म अति गूढ यह रहा॥50॥
ऋण प्रजाजनो का सिद्धराज ने मुक्त सर्व था करवाया।
उसने इस भांति किया साका अपना संवत्सर चलवाया॥51॥
वर्ष एक सौ त्रेसठ तक यह रूद्र महालय बना रहा।
जिसका प्रभाव भारत जन के मानस पर अतिशय घना रहा॥52॥
सिद्धराज की मूर्ति एक थी सम्मुख देवालय के रहती।
प्रतिमा मानो राजाऔ से, करके करबद्ध विनय कहती॥53॥
हे!,  हे! भविष्य के राजाऔ, देवालय को न लूटना तुम।
चाहे मेरे धन पर वैभव पर, गिद्ध समान टूटना तुम॥54॥
रूद्र महालय विध्वस
पर कब-कब माने दस्यु यूथ, जिनका ईश्वर केवल धन था।
शासन के मद में जो अन्धे, अत्याचारी जिनका मन था॥55॥
आक्रामक दुष्ट अलाउद्दीन ने, यह मंदिर लूटा तोडा।
फिर अहमद शाह यवन ने, इसमें नहीं तनिक भी धन छोडा॥56॥
औरगंजेब सा हृदय हीन, शासक भारत में फिर आया।
जिसने मंदिर करके  विनष्ट, *आदिलगजं था बनवाया॥57॥
यह प्रथम नगर है भारत का, इतिहास साक्षी देता हे।
जहां ब्राह्मण धर्म की रक्षा को, शास्त्रास्त्र करौं में लेता हे॥58॥
विद्वता से दैदिप्यमान थी, ब्रह्मतेज की प्रबल शक्ति।
भग्न द्वार 
जहां विप्रों ने दी मुण्डमाल, रुद्र देव की की भक्ति॥59॥

नव चेतना
संप्रति उस रुद्र महालय की, निर्मिती को वर्ष हजार हुए।
स्मरण करें निज गौरव को,  मर मिटने को तैयार हुए॥60॥
मिट गया अलाउद्दीन स्वयं, कोई न नाम उसका लेता।
श्री मूलराज ओर सिद्धराज का, नाम आज भी जग लेता॥61॥
खा लिये रुद्र ने दस्यु यूथ, फिर सोमनाथ उठ खड़ा हुआ।
मेहमूद देखिये गजनी का,  निज कब्र बीच हे पड़ा हुआ॥62॥
भग्नी-कृत देव मदिंरों से , बिडला, ने अधिक बनवाये हें।
शोभित डालमिंया, जेके, के भी मन्दिर अधिक सुहाये हें॥63॥
अमरीका में भी नव मन्दिर, निर्मित है इसी शताब्दी में।
भग्न स्तम्भ खंड 
आशा है! रुद्र महालय भी, पूरा हो इस सहस्त्राब्दी में॥65॥
हाय दुःख पर आज बहुत , जब लोकशाही युग आया है।
पर फिर भी रुद्र महालय यह, वापिस न हमें मिल पाया हे॥66॥
भग्न खडा यह रुद्रमाल, हमको मानो है पुकार रहा।
जो बह्मतेज था ऋषियौं का , तुममें न आज हुंकार रहा॥66॥
यह जीर्ण-शीर्ण मन्दिर कहता मेरा न अगर उद्धार किया।
इस सहस्त्राब्दी महोत्सव को तुमने सब विधि बेकार किया॥67॥
रूद्र महालय आज की स्थिती
दो मण्डप त्रयोदश स्तभं शेष, प्राची में शेष एक तोरण द्वार है।
ध्वस्त रुद्र महालया 
पश्चिम में चार शिवालया, ध्वस्त एक सूर्य कुण्ड भग्न, जीर्ण शीर्ण करता पुकार है।।
आईये! चुकाइये! पितृ ऋण अपना, कीजिये रुद्र महालय उद्धार है।।
यदि यह न किया तो व्यास निश्चय ही औदीच्य कहा जाना तुम्हे सर्वथा बेकार हे॥68॥
उद्बोधन
उऋण पितृ ऋण से हौं, करके देवालय निर्माण को ।
व्यास प्रार्थना करें रुद्र से, सब जग के कल्याण को॥69॥
निवेदन
जय रुद्र महालय खण्ड काव्य,लघु बुद्धी "व्यास" से लिखा गया ।
प्रस्तुत है तेज रुद्र का वहआकर हम सबको जगा गया॥70॥
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*बाज़ार
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द्वितीय प्रस्तुति
 --डॉ मधु सूदन व्यास
एम आई जी 4/1 प्रगति नगर उज्जैन म॰प्र॰
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