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सामाजिक जीवन व्यवस्था का मूलाधार- विवाह संस्कार।


सामाजिक जीवन व्यवस्था का मूलाधार- विवाह संस्कार

    बांसुरी के छिद्रों में बहता हुआ पवन, जैसे मधुर स्वर बन कर बाहर गुंजायमान होता है, उसी प्रकार सनातन धर्म के 16 संस्कारों को जीवन के अलग अलग खण्डों में बाट कर मनुष्य की मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक शक्ति को विकसित, किया जाता है।
     मानव को अपने स्वास्थ्य, व्यवहार, अनुशासन और संयम को स्वीकारोक्त बनाने का काम करते हैं- संस्कार! संस्कार वे क्रियायें एवं रीतियां है, जो व्यक्ति को सार्वभौमिक योग्यता प्रदान करने के साथ ही व्यक्ति को समाज व्दारा निर्धारित आदर्शो, मूल्यों एवं प्रतिमानों के अनुरूप विकास करने योग्य बनाते हें!
    संस्कारो पर गहराई से चिन्तन मनन कर हमारे ऋषि मुनियों, विव्दानों ने मानव जीवन को सुखी, सम्पन्न और श्रेष्ठ बनाने के लिए 16 संस्कारों की माला उसे पहनाई है। 
    ये संस्कार है- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोनयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, सन्यास और अन्त्येष्टि संस्कार। भारतीय संस्कृति में संस्कार इतने महीनता से घुल मिल गये हैं कि उनसे अलग होकर मानव जीवन को चलाना संभव नहीं है।

गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि संस्कार तक के 15 संस्कार तो एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को तराशते हैं।  किन्तु विवाह संस्कार दो आत्माओं, दो परिवारों के आपसी संबंधों को जोडता है। 
    
     विवाह संस्था का पहला उदाहरण महर्षि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु के समय का मिलता जिसने बलात अपनी माता के अपहरण को देखा। जिसका उसके मन पर गहरा असर हुआ और वयस्क होने पर उसने समाज में विवाह नामक संस्था की नींव रखी। संभवतः समाज में वैवाहिक परम्परा यही से प्रारम्भ होकर शनै शनै विकसित होती गई। 

     पुरातन समय में विवाह के लिऐ वर, वधु के चयन में परिवार वाले बहुत सावधानी बरतते रहे हैं। इसके लिए एक कहावत भी प्रचलित है ‘‘ पानी पीना छानकर और रिश्ता करना जानकर‘‘।  
    
      पुराने समय में तो रिश्ता तय करने से पहले दोनों पक्ष की कई पीढीयों को खंगाला जाता था। वर के कुल, शील, शरीर, आयु, विद्या, वित्त व साधन सम्पन्नता,  इन सात बातों की जानकारी तथा इसी प्रकार वधु में वित, रूप, प्रज्ञा और कुल ये चार लक्षणों की जानकारी लेने के बाद दोनों पक्षों की सहमति होने पर ही रिश्ते तय किए जाते थे। विवाह को वैदिक विधियों तथा कुल धर्म के अनुसार सम्पन्न कराया जाता था। ऐसे विवाह संबंधो में स्थायित्व बना रहता था। 

      वर्तमान समय में मानवीय मूल्यों का ह्रास, बढती हुई उम्र, भौतिक सम्पन्नता, विलासिता, दूरस्थ स्थानों पर नौकरी, परिवारजनों के आपसी संबंधों में गिरावट, समाज से दूरी, माता पिता एवं बीचवान की जिम्मेदारी का अभाव आदि अनेक कारणों की वजह से, वैदिक विधी विधान और कुल धर्म, लोकाचार से सम्पन्न होने वाले विवाह पध्दति में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। 
   
       पहले गाये जाने वाली प्रभाती, दूल्हा दूल्हन को हल्दी लेपन,बाना झेलना,ढोल की धुन पर नृत्य आदि अनेक विधियों लोप होगई है। वैदिक विधि के मान से आज भी, रिश्तों का चयन, गणेश पूजन, माता पूजन, मण्डप, गृहशान्ति, पाणिग्रहण, सप्तपदी में वर वधु के व्दारा एक दूसरे को दिए जाने वाले वचन, स्नेह भोज, आदि सभी सम्पन्न होने के बाद भी इनके सम्पन्न होने की क्रियाओं में गिरावट पैदा हो रही हैं। जैसे रिश्तों के चयन में परिवारजन अपनी जिम्मेदारी से हटकर लडके लडकियों की आपसी सहमति को ही महत्व दे रहे हैं।  पहले शादी घर से सम्पन्न होने के कारण बाराती और घराती लडकी के घरबार से वाकिफ हो जाते थे।  अब धर्मशालाओं या गार्डन में ही शादी और विदाई होरही है।  
      स्थान परिवर्तन से भी कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो रहे हैं । लग्न समय का बहुत महत्व है किन्तु, बैण्ड बाजों की धुन पर फुहड डांस के कारण बारात समय पर व्दारचार के लिए नहीं पहुंच पाने से वधु पक्ष के मन में कई प्रकार के विचार जन्म लेते है। 
    लग्न मण्डप में बारातियों व्दारा अक्षत को वर्षा की फुहार की तरह बरसाने के बजाय तुफान की तरह फेका जाना, फूहड हंसी मजाक में लग्न होना आदि। जबकि मंगलाष्टक का प्रभाव वर वधु के जीवन में प्रेम रस घोलता है, सावधान शब्द भविष्य में आने वाली असामान्य परिस्थितियों से निपटने के लिऐ पहले से ही सावधानी बरतने की और इशारा है। इसी प्रकार अक्षत वर्षा अक्षत की तरह मन से साफ रह कर एक दूसरे के परिवार में घुलमिल कर एक हो जाने का संदेश देती है। सप्तपदी में सात वचन जो वर वधु व्दारा एक दूसरे को दिये जाते है उनको भी यार दोस्तों,सखी सहेलियों व्दारा सस्ती हंसी मजाक में महत्वहीन कर दिया जा रहा है। 
     
   इस प्रकार वैवाहिक संस्कार के नियमों कई प्रकार से तहस नहस होने के कारण वैवाहिक विच्छेदों एवं आपसी अनबन में वृध्दि हो रही है ! इस पर प्रबुध्दजनों,युवाओं को चिन्त मनन कर ऐसा रास्ता निकालना चाहिए ताकि संस्कार की गरिमा और वर वधु के जीवन की डोर मजबूत हो सके।

     परिचय के विस्तार, और समय की मांग को देखते हुए विवाह संस्कार में परिवर्तन तो अवश्यभांवी है। किन्तु इसमें भावनात्मक अलगाव एवं उथलेपन का विस्तार थोडा कष्टप्रद है। अन्त में जब रिश्तों के चयन में लडके लडकी की व्यक्तिगत सहमति जिम्मेदार है, तो विवाह संस्कार की गरिमा , आपसी रिश्तों को निभाने, दोनों परिवारों में आपसी सौहार्द ,सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों आदि में पति पत्नि दोनों को ही समझोतावादी और सुधारवादी बनना होगा।  दोनों के मन में हक नहीं फर्ज की आवाज गूंजना चाहिए । 

उद्धव जोशी, उज्जैन