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सभी अपना अहम् छोड़ें अन्यथा इतिहास उन्हें माफ़ नहीं करेगा।

सावधान युवा जाग रहा हे। 
आज  सभी ओर जब युवा एक नई दिशा की और बढता दिखाई दे रहा हे, ऐसे समय पर  एक ही ढर्रे पर चलती और स्वयं को सही मानती पुरानी पीडी या पुराना स्थापित नेतृत्व  इसे स्वीकार करने के प्रति असमंजस में हे। 

पिछले चार वर्षो के अन्तराल में औदीच्य ब्राम्हण समाज के इस हिंदी भाषी क्षेत्र के इस औदीच्य बहुल क्षेत्र  में  अखिल भारतीय औदीच्य महासभा के अध्यक्ष श्री रघुनन्दन जी शर्मा के पदासीन होने के बाद से इस स्थिति में बदलाव आया हे। समाज ने कई नई उचाईयों को छुआ हे, समाज आज पुन गतिवान हुआ हे।  जाग्रति का नया इतिहास भी रचा गया हे। श्री शर्मा जी ने युवाओ और महिलाओं को भी भी मंच दिया। सभी दूर उनके नेतृत्व में समाज में बहुत कुछ अच्छा और स्मरणीय हुआ हे।
 पूर्व में  सब कहते थे की युवा पीडी समाज के कामो में रूचि नहीं लेती, उसे आगे आना चाहिए । पर आज यह युवा पीडी जब बड चड़कर भाग ले रही हे, तब हममे से ही कुछ को यह पसंद क्यों नहीं आ रहा हे। में बात कर रहा हूँ इंदौर में पिछले एक वर्ष के दोरान हुए  रचनात्मक कामों की जिन्हें उत्साही और सक्रिय युवाओं द्वारा किया गया था। उन्हें निष्पक्ष सराहा और प्रात्साहित किया जाना जाना था, और ऐसे नव कार्यो को करने वालो को प्रत्साहन पुरुस्कार स्वरुप उचित पद पर भी बैठाया जाना था  और यह सब भी होना था बिना किसी नाते रिश्तेदारी पसंद  नापसंद का विचार किये विना। पर क्या हुआ ? यह सबने देखा। इन सभी रचनात्मक कार्यक्रमों को किसी भी रूप में समाज की पत्रिका औदीच्य बन्धु में सुचना या समाचार के रूप में स्थान न मिलना भी आश्चर्यजनक लगता हे।  इसने जहाँ एक और नव युवको का मनोबल तोड़ने का प्रयत्न हुआ वहीँ  दूसरी और समाज को हानि हुई। 
बीच  बचाव के कई उपाय भी किये गए पर बीच-बचाव करने वाले अपनी निष्पक्षता सिद्ध नहीं कर पाए । इसमें भी दो मत नहीं की वरिष्ट और सक्षम पदाधिकार ''किंकर्तव्यम '' की स्तिथि में में केवल मूक दर्शक की भूमिका  अदा करते रहे हें, और आज तक भी इसी उहोपोह में हें। 
 आने वाले दिनों में समाज के एक ही दिन में दो परिचय सम्मलेन आयोजित होते दिख रहे हें। एक पक्ष जहाँ निशुल्क आयोजित कर रहा हे वही दूसरा परंपरागत। निशुल्क परिचय सम्मलेन करने का निर्णय में क्या सभी को साथ नहीं देना चाहिए?
क्या यह अहम् का प्रश्न नहीं बना दिया गया हे , यह अहम् के राक्षस और कुछ करे न करे समाज के हितो को दुधारी तलवार की तरह काट जरुर रहा हे। इसकी चरम परिणिति क्या होगी? 
पिछले अस्सी वर्षो से प्रकाशित हो रही ''औदीच्य बन्धु '' की निष्पक्षता पर भी सवाल उठ रहे हें। उनका उत्तर भी किसी के पास नहीं। 
पिछले चार वर्षो के दोरान जिनकी सक्रियता ने  समाज का जितना हित किया उन्हें  इस हानी का का बोझ क्या उठाना नहीं पड़ेगा? 
अभी भी वक्त हे, इसके पूर्व की  हम सब का  इस विराध की चरम परिणती से सामना हो , कुछ किया जाये। सभी अपना अहम् छोड़ें अन्यथा इतिहास उन्हें माफ़ नहीं करेगा। युवाओं को भी संयम रख कर सर्वजनहित की भावना से अन्य पक्ष के साथ समझोता की मनस्थिति बनाना होगी और इस वैमनस्य के बीज को यही नष्ट करना होगा। 
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