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कुदरत का किरश्‍मा है शिशु

शिशु भगवान का रूप है जिसमें न राग व्‍देष न माया प्रपंच होती है वह तो मुस्‍कराहट बिखेर कर इर अंजान की बांहो में झुल जाने को तैयार रहता है । गर्भावस्‍था में रहते हुवे भी सभी का ध्‍यान अपनी और खीचता है। बच्‍चा कैसा होगा, किस पर जायेगा। मां की ममता,पिता का प्‍यार और परिवार का दुलार नये मेहमान के आने की राह बडी बेसब्री से देखते हैं । शिशु के जन्‍म लेते ही डाक्‍टर और नर्सो के चेहरे पर अकल्‍पनीय खुशी बिखरती है तो कल्‍पना कीजिए  माता पिता और परिवार की खुशी का पैमाना क्‍या होगा । जच्‍चा खाने  में शिशु की किलकारी  मां को बच्‍चे के भूखे होने का पिता को उसे बांहो में झुलाने  और बहना को चिकोटी काटने की याद दिलाती है । शिशु थोड ही समय में सबका चहेता बनकर अपनी मनोहारी विलक्षण आभा से सभी को एहसास कराता है कि यदि आप सब भी मेरे जैसा राग व्‍देष से दूर रहकर मन मन्दिर में भाईचारे की मूर्ति स्‍थापित कर लो तो ईश्‍वर आपके आस पास ही दिखाई देगा ।
                शिशु ,लोगों के बीच  अकेला ही चर्चा का केंन्‍द्र बिंदु रहता है । अपना पराया जो भी आता है बच्‍चे की अठखेलियों की चर्चा करता है। बच्‍चु बडा शैतान है ,दिन भर परेशान करता है,बडा तेज तर्राट है,ऐसी अनेकों दलील  देकर सारा समय बच्‍चें की प्रशंसा के कसीदे पढने में ही गुजर जाता है।
               समय ही धन है के अनुसार शिशु ही बडों को हर काम समय पर करवाने की आदत डलवाता है। जल्‍दी सोना,गहरी नींद लेना,सुबह जल्‍दी उठना जैसी क्रिया शिशु करता है बडों को भी उसकी अनुसरण करना पडता है।शिशु के दैनन्दिनी कार्यो को समय पर करना ही हमारा धर्म बन जाता है । समय पर नाश्‍ता तैयार करना,स्‍कूल छोडना,स्‍कूल बस पर जाने के लिये समय की पाबंदी आदि के कारण वह घर के बडों के पास आलस्‍य को फटकने ही नहीं देता है । शिशु के संग रहने वाला हर सदस्‍य चुस्‍त दुरूस्‍त और स्‍वस्‍थ्‍य रहता है।
              शिशु प्रयोगधर्मी होता है । बचपन की प्रव्रत्ति होती है कि  जो देखता है उसे येन केन प्रकारेण पाने की जिद करता है । तोड फोड कर वह कई नये प्रयोग के साथ कुछ अलग बनने का प्रयास करता है। वह अपने प्रयास को विकास की राह पर ले जाने के लिए बडों की डांट फटकार की भी परवाह नहीं करता है। इसलिऐ हमारा फर्ज भी बनता है कि उसे अच्‍छा वातावरण उपलब्‍ध कराना चाहिए जिससे वह अपनी रचनात्‍मक प्रतिभा को विकसित कर सके। शिशु हमें अपनी क्रियाओं से सचेत करता है कि बडों को भी नकारात्‍मक प्रव्रत्ति के स्‍थान पर सकारात्‍मक,रचनात्‍मक और स्रजनात्‍मक प्रव्रत्ति  को विकसित करना चाहिए ।
             शिशु बुढापे की लाठी बनता है । शिशु जब यौवन की पगडंडी पर कदम रखता है तो उससे माता पिता यह आशा रखते हैं कि वह उनके बुढापे का सहारा बने । किसी शायर इसके लिए अनमोल बात कही है कि  आज उंगली पकड कर मैं तुझको सैर कराउ, तू हाथ थाम कर चलना जब मैं बूढा हो जाउं। 
कुदरत के शब्‍द कोष में शिशु शब्‍द का आशय बेटा और बेटी दोनों से है क्‍यों कि उसने दोनों को एक समान अपनी रेहमत से संवारा है। आजकल लिंग भेद के कारण शिशु को शव बनाने का जो कुत्सित कार्य किया जा रहा है वह राक्षसी कार्य है और उसके दुष्‍परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं।
          कुदरत का यही संदेश है कि शिशुवत बनों , दिल में दया रखों ,कन्‍या को अपनाओ और मानव जीवन को सुदर्शन बनाओ ।                                                                                      
उघ्‍दव जोशी उज्‍जैन
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