वर्तमान परिवार व्यवस्था ने चारों आश्रमों को धता बता कर एक नये आश्रम का निर्माण कर लिया है, जिसे आज मी भाषा में वृध्दाश्रम कहा जाता है। अब परिवार में सेवा से विमुखता, श्रध्दा से दुश्मनी करते हुए वृध्दजनों को वृध्दाश्रम की भेंट चढा रहे हैं। जिन वृध्दों ने बचपन को पालने में झुलाया, यौवन को चलना सिखाया, तरूणों को अच्छे संस्कारों से परिचित कराया ताकि वे सुखी सम्रध्दि के साथ रह कर बडों के लिये सम्मान का भाव रखें किन्तु आज उनकी सारी मेहनत पर पानी फिर सा गया है। इसके कारण बचपन तरसने लगा, यौवन तडफने लगा, तरूण अभावों की चक्की में पीसने लगा और वृध्दजन वृध्दाश्रम की चौखट पर कराहने लगे हैं। आज बचपन की जडों को प्यारी सी थपकी और बहुमूल्य अनुभव के खाद, पानी, प्रकाश और हवा की आवश्यकता थी वह उनसे वंचित हो गया है। परिवार के सभी रिश्ते तार तार हो रहे हैं। सुख आनंद और वैभव से दूरियां बढती जा रही है। कीमती अनुभव आश्रम में सिमट कर, अनुभवहीनता कुलांचे भर रही है। इसके कारण रिश्तों का भविष्य कितना अंधकार मय हो गया उसकी कल्पना नहीं की जा सकती हैा
अब भी भूतकाल की भूल को सुधार कर भविष्य का सुखद ताना बाना बुना जा सकता है। बचपन और पचपन का साथ साथ रहना बहुत जरूरी है। बच्चे जितने स्वयं को दादा दादी, नाना, नानी के हाथों सुरक्षित समझते हैं, उतने माता पिता के पास नहीं। माता पिता से तो उनका लगाव ना के बराबर ही रहता है।
वे भूल रहे हें की वे भी वहीं पहुचेंगे, ओर उनके बच्चे जो सीख रहें हें वही तो दोहराएंगे। |
समय सावधान, बालपन रूदन, क्रन्दन कर चेतावनी दे रहा है, कि संभल जाओ अन्यथा आपकी जिन्दगी का अर्थ व्यर्थ होकर चारों तरफ अनर्थ ही अनर्थ की ज्वाला में जलोगे ।
प्रेषक-
उद्धव जोशी , एफ 5/20 एलआयजी ऋषिनगर उज्जैन
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