प्राचीन उज्जयनी के राजा भ्रत्हरी (भरथरी) जिन्होंने वैराग्य के बाद नीति शतक एवं कई ग्रंथो की रचना की उनके वैराग्य शतक के भाव का सक्षिप्त रूप इस रचना में देखने मिलता हे।यह सामान्य जन को आसानी से समझ आ जाता हे।
जो सपने हम ने देखे थे,वे अभी हुए ना पूरे हैं|
कभी नोन,तो कभी तेल नहीं,कभी तेल है,तो है नहीं लकड़ी|
कभी दवा नहीं, कभी दुआ नहीं,बच्चों ने जिद कोई पकड़ी ||
अभी एक मकान बनाया है अभी मंजिल और बनाना है|
फ्रिज, टी.वी.,सोफा सब साधन, उस में तो हमें जुटाना हैं ||
स्कूटर तो ले आये हैं, पर कार का नम्बर लगा हुआ|
कुछ पैसा अभी तो आना है, कुछ मेरे साथ है, दगा हुआ ||
इस और-और, इस हाय-हाय का, आदि दिखे ना,अंत||
इस में तो वे भी,भटक गये,जो थे दिखने में बड़े संत||
हम से तो जानवर अच्छे हैं, जिनका ना कोई फांटा है |
ना उन का कोई धंधा है, जिसमें कि नफ़ा या घाटा है||
सोने के लिए धरती बिस्तर, वे मस्त, उसी पर सोते हैं|
हम कुछ को पा, कुछ को फिरते,ना मिलता कुछ,तो,रोते हैं|
वह आयु! कि जिस में ताक़त थी,संसार सिन्धु! तर जाने की|
वह पूरी ही,तो बीत गयी, रही केवल कमाने की |
अब आया है, लो अंत समय,यमराज! हमें अब घूरे हैं |.
पर लोक सुधारें हम कैंसे? ,इस लोक के,काम अधूरे हैं
जो सपने ,हम ने देखे थे,वे अभी हुए ना पूरे हैं।।
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भर्त्रहरी शतक [वैराग्य] भावानुवाद
चिंतन से उसके लाभ क्या जो वस्तु , मिथ्या रूप है ।
चिंतन करो उस ब्रम्ह का, जो परम ज्योति स्वरूप है ॥
अंत में यह भुवन भो, उस ब्रह्म में ही लीन हो ।
आश्रित हें सारे ब्रह्म पर , चाहे कृपण आधीन हो॥
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वह भरा हुआ घर देखो तो ,उस घर में रहते थे अनेक ।
कहाँ गए वे सब के सब ,अब मात्र बचा है शेष एक ॥
वह काल पुरुष, काली स्त्री, मिल साथ विश्व चौसर खेलें ।
रात, दिवस, दो पाँसों से, प्राणों की गोटी को ले लें ॥
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हम भी एक वृक्ष, नदी तट के, जो बालू में है खड़ा हुआ ।
जा रहे दिनों दिन, मृत्यु निकट,देखेंगे लोग कभी पड़ा हुआ ॥
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