क्‍या मान सकोगे ---- बेटों को बेटी

    संत की वाणी प्रभावहीन होगई,उपदेशकों के उपदेश बेअसर होगए,लेखकों की कलम घिस गई बेटी की गाथा लिखते लिखते ,किन्‍तु सब बेअसर । जमाना भी कहते नहीं थक रहा है कि बेटी को बेटा मानों, बहू को बेटी समझो किन्‍तु व्‍यवहार में सब शुन्‍य । अब समझ लो वह समय सामने खडा है जब  बेटों को ही बेटी कहकर पुकारना पडेगा । बेटी और बेटों के बीच जन्‍म दर की खाई इतनी  अधिक गहराती जा रही है कि निकट समय में बेटे ही बेटे इस जमीं पर दौड लगाते दिखेगें। यह कुल दीपक धीरे धीरे जवानी के हायवे पर मेराथन दौड लगाते दिखेगे। 

        आज नारी ही नारी की दुश्‍मन होती जा रही है। वह तो बेटी को जन्‍म देना चाहती ही नहीं किन्‍तु उसी परिवार के मुछ मरोडने वाले लोग भी भिगी बिल्‍ली की तरह महिलाओं के सामने दुम हिलाते नजर आते हैं। बेटी का जन्‍म देने के जो हास्‍यास्‍पद कारण बतायें जा रहे हैं जरा उनकी बानगी लेवे।    

1- कहते हैं पराये धन की इच्‍छा कभी नहीं करना चाहिए फिर बेटी भी तो पराया धन है।
 2-बेटी पिता परिवार के दिये संस्‍कारों से ससुराल परिवार को सुख दे यह मां बाप कैसे सहन कर सकते हैं ।
 3- बेटी के जन्‍म लेते ही चिन्‍ता की लकीरे खींच जाती है और भविष्‍य में उसके लिये धन जुटाने की व्‍यवस्‍था की मुसीबत । इसलिए बेटी का न आना की कल्‍याणकारी माना जा रहा है।
4- मां बाप बेटी को उच्‍च शिक्षा देकर नौकरी लगवाऐं और उसका पूरा लाभ ससुराल वाले ले यह बात मां बाप के लिये असहनीय है।
5- बालिग होने तक बेटी अपने पिता के नाम से जानी जाती है  और शादी होते ही इतने वर्षो की मेहनत पर पानी फेर उसके लिऐ पति ही सर्व सुखदाता  हो जाता है । ऐसे और भी अनेक कारण है जो बच्‍चीयों को धरा पर आने में रूकावट बन रहे है।
       जब बेटी के जन्‍म पर इतनी आपत्ति  तो अब हम बेटों की भी सुध ले लें जिनके जन्‍म पर मां बाप  और परिवारजन कितनी मान मन्‍नत करते है और जन्‍म होते ही अवर्णनातीत खुशी मनाते हैं। क्‍यों कि बेटा वंशावली नाम की पिक्‍चर का डायरेक्‍टर माना जाता है । बालिग होने  तक उसकी कोई चिंता नहीं,कोई रोक टोक नहीं चाहे जहां भटके,पढे तो  मर्जी न पढे तो कोई दवाब नहीं। कई बेटे तो मां बाप की कमाई पर ही गुलछर्रे उडाना अपना अधिकार समझते हैं । बेटे को बुढापे की लाठी भी कहा जाता है । बेटे का महत्‍व इसलिए भी अधिक है कि वह बाप की संपत्ति का अधिकारी और रक्षक है। बेटा दिवंगत  पिता की मिटटी को भी सुधारन कर मोक्ष का साधक बनता है। यह तो जन्‍म लेने और देने वाले पिता पुत्र की सत्‍य कथा है किन्‍तु  जो मां बाप बिना औलाद के है वे भी गोदी भरने की आशा में लडके को ही गोद लेने की अर्जी लगाते है । यदि बेटा इतना फलदायक है तो फिर बेटे को ही बेटी मानना शुरू कर देना चाहिए। पर यह भूता न भविष्‍यति होगा। बच्‍ची का गर्भपात करा कर चाहे जितना पाप कमालो  पर उसकी सशक्‍त आवाज सर पर चढ कर बोलेगी। उसके जन्‍म पर कोई डाका नहीं डाल सकता ।
       भारतीय संस्‍क्रति में चार आश्रम के मानक तय किए गये हैं।जिनमें ग्रहस्‍थाश्रम को अधिक महत्‍व दिया गया है क्‍योकि यही आश्रम परिवार को व्‍यवस्थित कर अपनी पाठशाला में संस्‍कार,संस्‍क्रति,अनुशासर अतिथि सेवा सत्‍कार की शिक्षा भी देता है। जीवन में सुख सौंदर्य भी परिवार की देन है और यह सब होता है नर और नारी के सम्मिलित प्रयास से। यदि आज की परिस्थिति अनुसार बच्चियां जन्‍म ही नहीं लेंगी तो परिवार नामकी संस्‍था समाप्‍त होकर बेटे पागलों की तरह चारों तरफ भटकेगें और अंत में पागलखाना उनकी शरणस्‍थली होगा और मां बाप का कुल दीपक किसी काम का न होकर सबके लिऐ मुसीबत बन जायगा ।
      सहयोग की साधना,ईश्‍वर की आराधना और आत्मिक प्रेम की धरोहर  को बचाने के लिए ही ग्रहस्‍थश्रम की कल्‍पना की गई है। जिसमें हर सदस्‍य की नकेल एक दूसरे के हाथ में देकर उन्‍हे शिक्षति करने का काम एक दूसरे को सोंपा गया है।  नारी की आरी नर के सर पर चढे भूत को बखूबी उतारना जानती है । नारी के बिना  घर को भूत का डेरा या शमशान तक कहा गया है। आज तो परिवार के महत्‍व को समझने वाले कई समाज कन्‍या के घर वालों को मुहमांगा धन देकर बहू ला रहे हैं। और अधिकांश बेटे तो पत्‍नी की तलाश करते करते आधी उम्र तक के हो गये हैं। अधिक उम्र की परिपक्‍व स्‍वभाव वाली बहू का तो ससूराल में मन ही नहीं लगता और अपनी ग्रहस्‍थी अलग बसाने में प्रोढ पति भी उसका साथ देता है। आज बढती हूई व्रध्‍दाश्रमों की संख्‍या भी इसकी देन है। इसलिए प्रक्रति के नियमों पर चलो अपनी अकल लगा कर मुसीबत मत पैदा करों । स्‍वयं महिलाऐ और अपने पति के सुरक्षित भविष्‍य को देखना चाहती है तो समझ लो कि बेटी एक बार बेटे का फर्ज निभा सकती है किन्‍तु बेटा कभी भी बेटी की जगह नही ले सकता ।  इसलिए सबसे निवेदन है कि
       कन्‍या का न गर्भपात कराओ,उसे धरा पर आने दो। यदि सुधारना है बुढापा तो बेटे को ग्रहस्‍थी बसाने दो।
                                                                                                                       उघ्‍दव जोशी उज्‍जैन ................................................................................................................................

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