मानव शरीर का प्रत्येक अंग जेंसे अपने कर्त्तव्य का निष्पादन करता है तो शरीर में बल,उर्जा,ताजगी और सौंदर्य बने रहते हैं । यदि किसी अंग में शिथिलता आ जाती है तो उसका प्रतिफल पूरे शरीर को भोगना पडता है। ठीक इसी प्रकार एक मानव का दूसरे मानव के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करना परिवार,समाज और राष्ट्र को बल प्रदान करता है । कर्त्तव्य का पालन करना मानव को अधिकार प्राप्त करनें का अधिकारी बना देता है किन्तु यदि कोई बगैर कर्त्तव्य का पालन किए अधिकार प्राप्ति की कामना करता है तो यह अनुचित ही नहीं अविवेकपूर्ण भी होगा । कर्त्तव्य बोध और अधिकार बोध दोनों अपनी अपनी भूमिकाओं में अलग अलग है। फिर भी दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। बगैर पानी के जिस प्रकार भोजन का पाचन नहीं हो सकता ठीक उसी तरह कर्त्तव्य की प्यास के बिना अधिकार की भूख का कोई अर्थ नहीं क्योंकि अधिकारों के पाचन की क्रिया में कर्त्तव्य के जल की उपस्थिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । पहले हम अपने पराये स्वजनों स्नेहीजनों के साथ मानवीय कर्त्तव्यों का निर्वहन करेगें तभी अपने अधिकारों की मिठास का आनन्द पा सकेगें । मनुष्य और पशु के अन्तर को बताते एक पश्चिमी विव्दान के उदगार हैं कि पशु भी जानता है और मनुष्य भी जानता है किन्तु पशु यह नहीं जानता की वह जानता है ,जबकि मनुष्य यह जानता है कि वह जानता है। संस्कुत सुभाषित में बताया गया है कि भोजन,नींद,भय और प्रजनन की प्रव्रत्ति पशुओं और मनुष्य में समान रूप से पायी जाती है किन्तु एक धर्म तत्व मनुष्य में अधिक होता है।
कर्त्तव्य बोध हमें दूसरों के लिये जीना सीखाता है एवं अधिकार बोध स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिये प्रेरित करता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि निस्वार्थ भाव ही धर्म की कसौटी है जो जितना अधिक निस्वार्थी होगा वह उतना ही आध्यात्मिक और शिव के समीप होगा । किन्तु स्वार्थ का चोला पहर कर धर्म का स्वांग रचाता है वह आध्यात्मिकता और शिवत्व को कैसे धारण कर सकता है । आये दिन हम देख रहे हैं कि धरना,जाम,प्रदर्शन और रैली के व्दारा हर आदमी अधिकार की मांग में मशगुल है और अपने कर्त्तव्य का पालन करने में अरूचि और शिथिलता अपनाये हुवे है। यदि मानव स्वयमेव समर्पण भाव से अपने कार्यस्थल पर जैसी भी परिस्थिति हो ,कर्त्तव्यों का पालन करें तो उसके अधिकारों की प्राप्ति के मा्र्ग में कोई बाधा नहीं होगी ।
यदि देश का हर व्यक्ति कर्त्तव्य पालन को सर्वोच्य प्राथमिकता दे तो परिवार,समाज और देश अपनन्त की महक से सराबोर होगा । अपने कर्त्तव्य के पालन में ही जीवन का सुख और सार्थकता है । यह हमारी कर्म निष्ठा को प्रकट कर हमें सच्चे अर्थो में मनुष्य बनाता है । जिस देश में जितने अधिक मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का पालन करते है, वह देश उतना ही सम्पन्न और मजबूत होता है ।
कर्त्तव्य का फल कहने से नहीं करने से मिलता है ,अधिकारों का कमल भी जीवन में तभी खिलता है।
आओ हम कर्त्तव्य के हल से अधिकरों के बीत बोकर सुख की लहलहाती फसल पैदा कर परिवार समाज और देश को धन्य करें ।
उघ्दव जोशी उज्जैन
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इस साईट पर उपलब्ध लेखों में विचार के लिए लेखक/प्रस्तुतकर्ता स्वयं जिम्मेदार हे| इसका कोई भी प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा हे|सभी समाज जनों से सुझाव/सहायता की अपेक्षा हे|
कर्त्तव्य बोध हमें दूसरों के लिये जीना सीखाता है एवं अधिकार बोध स्वयं की स्वार्थ पूर्ति के लिये प्रेरित करता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि निस्वार्थ भाव ही धर्म की कसौटी है जो जितना अधिक निस्वार्थी होगा वह उतना ही आध्यात्मिक और शिव के समीप होगा । किन्तु स्वार्थ का चोला पहर कर धर्म का स्वांग रचाता है वह आध्यात्मिकता और शिवत्व को कैसे धारण कर सकता है । आये दिन हम देख रहे हैं कि धरना,जाम,प्रदर्शन और रैली के व्दारा हर आदमी अधिकार की मांग में मशगुल है और अपने कर्त्तव्य का पालन करने में अरूचि और शिथिलता अपनाये हुवे है। यदि मानव स्वयमेव समर्पण भाव से अपने कार्यस्थल पर जैसी भी परिस्थिति हो ,कर्त्तव्यों का पालन करें तो उसके अधिकारों की प्राप्ति के मा्र्ग में कोई बाधा नहीं होगी ।
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कर्त्तव्य का फल कहने से नहीं करने से मिलता है ,अधिकारों का कमल भी जीवन में तभी खिलता है।
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उघ्दव जोशी उज्जैन
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