औदीच्य ब्राहमण संन्दर्भ - इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दन से प्रकाशित सूची ग्रन्थो में।
उद्धव जोशी।
संस्क्रत साहित्य का भण्डार विश्व साहित्य की तुलना में अति व्यापक है। संस्क्रत साहित्य की इस विशाल राशि की रक्षा के लिए समय समय पर मूल ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियां मूल रचनाकारों , तत विषयों के विव्दानों , व्यावसायिक लेखकों, सन्यासियों, जैन मुनियों आदि ने समय समय पर संपादित की है।
संस्क्रत साहित्य की पाण्डूलिपियां भी लाखों में है। ऐसी ही पाण्डुलिपियां सुरक्षा भण्डारों में पूना का भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान, बडोदरा का गायकवाड प्राच्य ग्रन्थ शोध संस्थान, एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, मुम्बई एवं लन्दन , सिंधिया ओरियन्टल शोध संस्थान विक्रम विश्वविध्यालय उज्जैन, अडयार प्राच्य ग्रंथ संग्रहालय चेन्नई, सरस्वती महल प्राच्य ग्रन्थ संग्रहायल सम्पूर्णानन्द विश्वविध्यालय वाराणस प्राच्य ग्रन्थ संग्रहालय पाट, जैसलमेर, त्रिवेन्द्रम , मॅसूर आदि देश के प्रसिध्द संस्थान है । विदेशों में जहां पर सस्क्रत पाण्डुलिपियों के संग्रहालय है उनमें दरबार लायब्रेरी काठमाण्डू नेपाल, आक्सफोर्ड विश्वविध्यालय लन्दन, एवं इंडिया आफिस संस्क्रत प्राच्य संग्रहालय लन्दन आदि विख्यात संस्थाऐं हैं।
यहां यह उल्लेखनीय है कि ग्रन्थों की प्रतिलिपिकर्ताओं के रूप में ब्राहम्ण जाति का वर्चस्व द्रष्टिगोचर होता है तथापि अनेक प्रमाण हैं जो अन्य जातियों की इस प्रव्रत्ति की और संकेत करते हैं । ब्राहमणो व्दारा निर्मित पाण्डुलिपियों में भी कई विशेषताओं के साथ कहीं कहीं यह तथ्य भी उदघाटित होता है कि उन्होने अपनी उपजाति की पहचान भी लिखी है जैसे नागर, मोढ, चतुर्वेदी, सारस्वत, औदीच्य आदि ।
यहां ब्राहम्णों की उपजाति औदीच्य ब्राहमणों व्दारा प्रतिलिपिक्रत पाण्डुग्रन्थों का परिचय उपस्थापित किया गया है जो इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दन से प्रकाशित सूची ग्रन्थों में उपलब्ध है। इन संदर्भो का चयन उक्त संस्था व्दारा प्रकाशित सात खण्डों के आधार पर किया गया है। प्रथम खण्ड में औदीच्य ब्राहमणों से संबंधित तीन संदर्भ प्राप्त होते हैं । ये तीनों वेद और वेदांगों से जुडे हूए हैं। प्रथम औदीच्य उल्लेख जिस ग्रन्थ पर हुआ है वह कर्मकाण्ड का है। इस ग्रन्थ का नाम उपग्रन्थ सूत्र है। उक्त ग्रन्थ में सामवेद से की जाने जानेवाली धर्म विधियों का विवेचन हुआ है। इसमें 32 पत्र है। यह पाण्डुलिपि देवनागरी में लिपिबध्द है। प्रत्येक पत्र में 9 पक्तियां है। ग्रन्थ समाप्ति पर लिपिकर्ता ने अपने स्थान, संवत, मास, वार , उपजाति एवं स्वयं का नाम इस प्रकार प्रकाशित किया है।
---- संवत 1486 वर्षे भाद्रपदवादि। गुरावध्येह श्री कर्षढिकास्थों,उदच्ज्ञातीय पंडित लक्ष्मीधरेण लिखिमिंद ।। श्रुभंभ्वतु।।
व्दितिय पाण्डुग्रंथ् कात्यायन श्रौत पर भाष्य है। यह भाष्य सहस्त्र औदीच्य जाति के प; महादेव व्दिवेदी के व्दारा लिखा गया है। इसमें अंकित संवत की संख्या से ज्ञात होता है कि ये सन 1676 में लिखा गया था । यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि यह ग्रन्थ मूल लेखक के व्दारा लिखी गई पाणुलिपि है।
इति सहस्त्रौदीच्य ज्ञाती व्दिवेदी महादेव क्रत कात्यायन सूत्र भाष्ये व्दितीयाध्याय.।।/ संवत सप्तदशत्रयस्त्रिंशव्दर्षे श्रावण क्रष्ण त्रतियां सौ महादेवने लिखितमिदम ।।
इ;आ;ला;ंसूची ग्रन्थ प्रथम प्रष्ठ 65 ।
प्रथम खण्ड में ही त्रतीय औदीच्य सन्दर्भ जहां प्राप्त होता है, उससे स्पष्ट है कि ओदीच्य ब्राहमण ग्रन्थों के संग्रह करने में भी अग्रणी थे । निघण्टु निर्वचन जो निघण्टु पर भाष्य है कि पाण्डुलिपि उदीच्य जातिय पीताम्बर नामक ब्राहम्ण ने की थी। यह ग्रन्थ उनकी संपत्ति था ।
उदीच्यज्ञातीयपीतांबरस्य निघण्टुनिर्वचनपुस्तकमस्ति ।।
इ;अ;ल;सं;सूची ग्रन्थ प्रथम प्र;152
इण्डिया आफिस लायब्रेरी के खण्ड व्दितीस के सूची ग्रन्थ में लिंगानुशासन की पाण्डुलिपियों में एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत होता है कि मथुरानाथ नामक औदीच्य उपनामधारी ब्राहमण लेखक ने पंडित दामोदर जी के वंशजों के उपयोगार्थ इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि की थी ।
ज्योतिषराय जी श्री पांच श्रीजीची पण्डित दामोदरजी तस्य पुत्र चीकंवरजी दुर्लभरायजी ज्योग्य पठनार्थ श्रुभमभवतु लिखिं पं; मथनानाथ उदीच्यसोपरना ।
इ;अ;ल;सं;सूची ग्रन्थ खण्उ व्दितीय प्र;217
सूची पत्र के खण्ड त्रतीय में मात्र एक ही औदीच्य ब्राहमण का संकेत प्राप्त होता है। यह संकेत धर्मशास्त्र से संबंध्द आचार्य श्रीधरक्रत स्म्रत्यर्थ सार पर विनियोजित है। यह पाण्डुलिपि 480 वर्ष प्राचीन है और यहां यह भी विदित होता है कि रेवातीर निवासी ओडाकाल दास के अध्ययन हेतु लिखा गया था । पाण्डुलिपिकर्ता शनिवार एवं स्थान के रून में शुक्लतीर्थ काक भी उल्लेखकरता है । शुक्लतीर्थ कदाचित गुजरात प्रान्त का सूरत या सिध्दपुर नगर हो सकता है । यहां लिपिकर्ता अपने उपनाम कका प्रयोग भी करता है।
संवत 1568 वर्षे फाल्गुनमासे क्रष्णपक्षेचतुर्थ शनै लिखितं श्री शुक्लतीर्थे उदीच्यजाति ठाकर
राजऋषिशर्मणालिखितं इद्र पुस्तकं।। श्रीरेवातीरे रूंढवास्तव्य श्री नालज्ञातीय ओडाकलदासमध्ययनार्थे।।
इ;आ;ला सं; सूची ग्रन्थि खण्ड त्रतीय प्र 471 ।
अग्रिम संदर्भ में भामती का जो ब्रहमसूत्र शंकर भाष्य की व्याख्या है, सह त्रतीय अध्याय मा 9 की पाण्डुलिपि है। इसके निर्माता औदीच्य ब्राहमण श्री नरहरि के पुत्र पुरूषोत्तम है। यह सूचीग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड में संकेतित है। इसका एक लेख संवत 1642 में वैशाख मास शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि एवं सोमवार को पूर्ण किया गया था ।
संवत 1642 वरषे वैईशाष श्रुदि एकादश तिथोससौमेंअध्येह काछैइ्रवास्तत्यं उदीच्यज्ञाती यमहे श्री नरहरिसुतपूरूषोत्तमक्येन लिखितं ।
इ;बा;ल;सं; सूची ग्रन्थ खण्ड चतुर्थ प्र 721 ।।
चतुर्थ खण्ड में ही दर्शनशास्त्र के ग्रन्थ सकल वेदोपनिषत्ससारोपदेश सहस्त्री जो शंकराचार्य की क्रति है कि पाण्डुलिपि औदीच्यब्राहमण जाति के जोशी विश्वनाथ व्दारा की गई थी ऐसा संदर्भ प्राप्त है।
इ;आ;ला;सं;सूची ग्रन्थ खण्ड चतुर्थ प्र; 731 ।
सुची ग्रन्थ के पांचवे खण्ड में मात्र एक ही औदीच्य ब्राहमण संदर्भ प्राप्त होता है । यह संदर्भ वास्तुशास्त्र के भोजविरचित राजवल्लभ मण्डल ग्रन्थ की प्रतिलिपि में सुरक्षित है। प्रतिलिपिकर्ता ने उल्लेख किया है कि कवह नवीनापुर निवासी है। उसका उपनाम दवे है। श्री दवे ने इस प्रतिलिपि को संवत 1866 मास भाद्रपद,पद्वक्ष शुक्ल,तिथि पंचमी एवं वार गुरू के दिन परिपूर्ण की । भाद्रपद माह की शुक्ल पंचमी भारतीय पंचाग में ऋषि पंचमी के रूप में प्रसिध्द है । संभवत लिपिकार ने ऋषियों की अर्चना तिथि को इसे समाप्त कर ऋषि ऋण से उऋण होने का उपक्रम किया हो ।
इ;आ;ला;सं; सूची ग्रन्थ खण्ड पंचम प्र; 1136
सूची ग्रन्थ का छठे खण्ड में औदीच्य संदर्भ अप्राप्त है।
सातवे खण्ड में चार औदीच्य ब्राहमण्उ संकेत प्राप्त हुए हैं। इनमें से तीन पाण्डु ग्रन्थ एक ही परिवार व्दारा निर्मित है । उक्त तीनों पाण्डुलिपियां साहित्य ग्रन्थों की है । इनमें प्रथम कालिदास क्रत रघुवंश पर मोलाचल मल्लिनाथ सूरी क्रत संजीवन टीका है। दूसरे ग्रन्थ में इसी लेखक व्दारा कुमार संभव के एक से सात पर्यन्त मूल सर्गो के साथ साथ संजीवनी का लेखन किया है। त्रतीय ग्रन्थ महाकवि भारवि प्रणीत किरातर्जुनीयम है। इसमें लेखक ने मूल ग्रन्थ के ससाथ मल्लिनाथ क्रत घण्टापथ व्याख्या की प्रतिलिपि की है। तीनों ही पुष्पिकाऐं जो लेखक का विस्त्रत परिचय प्रस्तु त करती है ।
इ;आ;ला;सं;सूची खण्ड सप्तम प्र 1416 , प्र; 1419, एवं प्र; 1430 ।
उपर्युक्त औदीच्य ब्राहमण दवे परिवार के एक ही लिपिकर्ता के तीनों पाण्डु ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि कदाचित वे सशुल्क लेखन का कार्य करते रहे हों । लेखक ने अपना ग्रहनगर लिखा है वह संभवत राजकोट गुजरात हो सकता है क्योकि औदीच्य ब्राहमणों का गुजरात से संबंध सर्वविदित है।
सातवे खण्ड में अन्तिम औदीच्य उल्लेख रत्नकलाचरित है जो कि लोलिम्बराज की क्रति है। की प्रतिलिपि पर उपलब्ध होता है । यह 9 पत्रों का ग्रन्थ है। आकार 9 1/2 4 इंच है। उत्तम देवनागरी लिपि में इसे लिपिबध्द किया गया है । प्रत्येक पत्र में 9 पक्तियां है। प्रतिलिपिकर्ता ने औदीच्य जाति का तो यहां उल्लेख किया ही है साथ ही औदीच्य ब्राहमणों की व्रध्द शाखा से अपना संबंध दर्शाया है। वह अपना उपनाम रावल लिखता है।
इ;आ;ला; सं; सूची ग्रन्थ खण्ड सात प्र 1491 ।
इस प्रकार उक्त सातों खण्डो में उपलब्ध औदीच्य बा्हमणों के संदर्भों के परिशीलन से यह ज्ञात होता है कि ब्राहमणों में हमारी उपजातति अत्यन्त मेधावी एवं प्राच्यग्रन्थों की पाण्डुलिपियां बनाने में अत्यन्त निष्णात थी । हमारे पूर्वज अपनी जातति को सम्मान देते थे तथा उसे प्रकट करने में गौरव का अनुभव करते थे । हमें यह भी विदित होता है कि उपका अध्ययन एवं लेखन क्षेत्र व्यापक था । वे वेद वेदांग, दर्शन,कर्मकाण्ड, वास्तुकला,साहित्य आदि विषयों के विव्दान रहे है। उन्होने प्राचीन ग्रन्थों की प्रतियां निर्मित कर भारतीय साहित्य के संरक्षण में अतिशय महत्वपूर्ण योगदान दिया है क्योकि मूल ग्रन्थों की प्रतियां निर्मित करना भी तत्कालिन परिस्थितियों में विध्या विस्तार की द्रष्टि से अति महत्वपूर्ण कार्य था। ऐसे ही अनुष्ठानों ने भारतीय विध्या के ग्रन्थों के अस्तित्व को बनाये रखा है।
समाज शास्त्रीय द्रष्टि से विचार किया जाय तो यह तत्व भी उल्लेखनीय होगा कि ब्राहमणों में हमारी उपजाति औदीच्य ऐतिहासिक अस्तित्व रखती है।
अनेक पाण्डुलिपियों ने 400/500 वर्ष पूर्व के संकेत प्रस्तुत किए हैं । इसका तात्पर्य यह है कि हमारी औदीच्य संज्ञा सहस्त्रों वर्षों के इतिहास की साक्षी है।
औदीच्य ब्राह्मण विकिपीडिया पर देखें
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