पिछले लगभग चार दशक में आई अश्लीलता की बाड ही हमको पतित बना रही हे। इस मंद पर दीर्घ जीवी इस विष का असर अब तांडव मचा रहा हे, ओर इसका प्रमुख कारण कोई समझ भी नहीं पा रहा हे। कानूनों को कडा करने के साथ कोई इस विष के बारे में भी सोचेगा?
वर्तमान में चारो ओर से अश्लील ओर वीभत्स घटनाओं के समाचार प्रमुख रूप से देखने मिलते हें। सभी संचार साधन भी इनको चटकारे दार रूप में प्रस्तुत कर रहे हें, ओर प्रमुख रूप से पड़े/देखे जा रहे हें।
स्त्री पुरुष का संबंध अति पवित्र ओर अति उच्च स्तर का हे। माता ओर पुत्र, बहन ओर भाई, बाप ओर बेटी, के रूप में नर ओर नारी के संबंधो की चर्चा बहुत पवित्रता शालीनता के साथ की जाती हे। पाती पत्नी के बीच भी सखा, सहायक, विश्वासी, साझीदार, जेसे सद्भावना सम्पन्न स्नेही जेसा होता हे। दंपति जीवन का अधिकांशतम समय इसी द्रष्टिकोण के साथ गुजारा जाता हे।
काम क्रीडा या वासना का स्थान ग्रहस्त जीवन में नगण्य सा हे। ओर वह भी इतना गुह्य रखा जाता हे की किसी तीसरे को जानने समझने का अवसर न मिले। इसकी सार्वजनिक चर्चा ओर चिंतन भी नहीं किया जाता।
अनावश्यक काम चिंतन गेरजरूरी उत्तेजन पेदा कर शारीरिक, मानसिक,एवं सार्वजनिक नुकसान के द्वार खोलता हे। सामाजिक द्रष्टि से कामुकता भरा अश्लील चिंतन नारी जाती के प्रति घ्राणित स्तर की कल्पना करने की प्रेरणा देता हे, जो वस्तुत: होता ही नहीं। बहन, माता, बेटी, ओर सहधर्मिणी, नारी के प्रति सोच रमणी,कामिनी, वासना ओर उपभोग की वस्तु की प्रतिमा के रूप में देखना ओर सोचना वेसा ही हे जेसा किसी मंदिर में प्रतिष्ठित देव प्रतिमा को उठाकर दुर्गंधित कीचड़ में गिरा देना।
आजकल कामुकता भरी फिल्म/ ओर सीरियलों की बाड आ गई हे, उत्तेजक मुद्राओं वाले विज्ञापन, काम कला को निर्देशित करती तस्वीरें, पोस्टर, पुस्तकें ओर नेट के माध्यम से परोसी जाने वाली सामग्री से बाज़ार ही नहीं घर भी टीवी/ नेट माध्यम से भरा पड़ा हे।
देवी देवताओं की तस्वीरें भी कामातुर रूप में प्रस्तुत कर अवतारों के महान प्रयोजनों को भुला कर उन्हे भी वासना का प्रतीक बना दिया गया हे। दुकानों, घरो, ओर चोराहों पर टंगी अर्धनग्न नारियों की तस्वीरे, यह सिद्ध करती हें की नारी की गरिमा को स्वतन्त्रता के नाम पर निर्लज्ज वेश्या के स्तर पर खड़ा कर दिया गया हे। क्या कामुकता ही एक मात्र नारी की विशेषता रह गई हे? नारी की व्रद्धावस्था, शेशव, वात्सल्य, करुणा, कठोर श्रम शीलता, शालीनता, का कोई महत्व नहीं रहा हे।
नारी का नग्न, अश्लील, ओर कामुक चित्रण हमारी रुग्ण मनोभूमि का ही चित्रण हे। संचार के समस्त साधनो सहित लेखनी / वाणी/ द्र्श्य ओर श्रव्य सभी माध्यमों का सारा प्रवाह मानो इसी एक ओर चल रहा हे। आज के कलाकार, साहित्यकार, दुकानदार, गायक अभिनेता, चित्रकार, सभी के द्वारा स्वीकारा ओर किया जाना क्या उनका कला के प्रति किया जघ्यन्य अपराध नहीं हे?
बात यहीं तक समाप्त नहीं हो जाती इस भोंडे विचार प्रवाह का असर नारी पर भी हो रहा हे। वह भी इस नर पशुता के अनुरूप झुकने के लिए तयार करती जा रही हे। जब नर पशु मन नारी की की मांसलता ओर नग्नता को सराहता हे तब वह भी श्रंगार ओर फेशन के चलते ज्ञात ओर अज्ञात [जाने अनजाने] उसी साँचे मे ढलती जा रही हे, तथा कथित महिला स्वतन्त्रता ओर महत्ता के साथ बड़ते हुए शालीनता की सीमा पार जाकर कुत्सित परिणामों को आमंत्रित करने का कारण भी बनती जा रही हे। इस अश्लीलता ओर फेशन के चलते विक्रत मस्तिष्क शालीन नारियों ओर अबोध बालिकाओं को भी शिकार बनाने लगते हें।
अश्लीलता की इस पूतना जो हमारी आत्मा को विष का घूंट पिलाने आई हे, से जेसे भी हो पिंड छुड़ाना ही होगा।
शील अपराधो का तोड़ केवल सजा को कड़ी करना ही एक मात्र उपाय नहीं इससे अधिक लाभ नहीं होगा। इसके साथ ही स्वतन्त्रता के नाम पर फिल्म ओर टीवी सेंसर बोर्डो को इस नग्न प्रदर्शन पर रोक लगानी ही होगी। इन कामुकता भरी विज्ञापन को रोकाना ही होगा। घरो से इस प्रकार की तस्वीरों को निकालना ही होगा।
सबसे बड़ी बात यह हे की प्रत्येक विचार शील इस व्यवसाय से धन कमाने वालो की भर्त्सना करें उनके उत्पादनों से घ्रणा करें। इन सबसे बचे ओर बच्चों को भी बचाए। अश्लीलता विरोधी अभियान चलाएं। सर्व साधारण को अश्लीलता की इस राक्षसी का दर्शन कराएं, अनेतिकता का विरोध करें, यही हमारे लिए उचित होगा।
मधुसूदन व्यास
मधुसूदन व्यास
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