सुविचारों से आत्मबल विकसित करें?
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महात्मा बुध्द का कथन है कि लोहे में उत्पन्न और बसा हुआ जंग लोहे को खा जाता है। उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में उत्पन्न और पाली हुई ईर्ष्या, व्देष मनुष्य को मरणासन्न बना देता है। वर्तमान समय में हम अपने चारों और देखें तो पायेगें की मनुष्य परनिंदा में रूचि लेकर अपना अमूल्य समय नष्ट कर रहा है। इससे समाज में अशान्ति और विकार पैदा हो रहे हैं। दूसरों की निंदा कर हम स्वयं कलुषित वातावरण को पैदा कर रहे हैं। दूसरों के छिद्रान्वेषण से अपने व्यक्तित्व का खोखला प्रदर्शन कर न तो हम निंदा करने वाले व्यक्ति का भला और न ही समाज के सुधार में अपना सहयोग कर रहे हैं। कबीर जी ने ठीक ही कहा है कि अपनी और आने वाली गाली या निंदा का जवाब यदि आपने दिया तो वह विकराल स्वरूप धारण कर लेती है, किन्तु यदि आप चुप रहे तो वह आवाज मुरझा कर वातावरण कलुषित होने से बच जायेगा। परनिंदा तथा स्वस्थ्य आलोचना में भारी अंतर होता है। निंदा करने से व्देष पनपता है, पर स्वस्थ समालोचना से परहित की भावना का उदय होता है। जीवन के प्रति आस्था, उत्साह, और विश्वास हो तो मनुष्य का चरित्र आकर्षक बन जाता है। यह यही है कि जहां भलाई है, वहां बुराई भी अपना डेरा जमाती है। जहां प्रशंसा है वहां निंदा भी बसने का घोर परिश्रम करती है। इसलिए हम स्वयं निंदा करने से तो बचे साथ ही अपनी निंदा सूनने की क्षमता भी पैदा करें । कबीर जी ने कहा भी है कि '' निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छबाय, बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय'। हमारे अन्दर जो अच्छे विचार पैदा होते हैं यदि इनके माध्यम से हम अपना आत्मबल विकसित करने का प्रयास करें तो हममें संयम और सदगुण पैदा होगें। प्रेम, करूणा, दया की जलधारा से मानव जीवन तरूण बना रहेगा।
उद्धव जोशी, एफ 5/20 एलआयजी ऋषिनगर उज्जैन
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