स्वगत-

स्वगत      
स्वगत
डॉ.मधु सूदन व्यास
<http://audichyabandhu.blogspot.com>

हम कोन हें - देव या दानव 
सुर (देवता) और असुर दोनों ही प्रत्येक व्यक्ति में होते हें। इसे ही सात्विक या तामस प्रकृति भी कहा जा सकता है।
आदि काल से अब तक भी सुर और असुरों का संग्राम चल रहा है।

जब कभी भी पूरे समाज में जब अराजकता और अवांछनीय गतिविधियों का प्रभुत्व स्थापित कर लेतीं है तो असुर विजयी होते हें।
प्रत्येक मनुष्य स्वयं यदि चाहे तो अपनी आसुरी प्रव्रत्तियों से स्वार्थ छोड़ कर छुटकारा पा सकता है।

जब तक हम केवल स्वयं हित के लिए प्रव्रत्त रहेंगे या चिंतन करते रहेंगे तब तक असुर साम्राज्य  समाप्त नहीं हो सकता।

जो अपने साथ अन्य के लाभ की भी सोचे वह इंसान मनुष्य कहला सकता है और जो अन्य  के लिए ही सोचे और करें वह सुर या देवता बन जाता है। केवल स्वयं की ही सोचने वाला राक्षस या असुर ही होगा।

हम क्या बनाना चाहते हें इसका निर्णय स्वयं ही करना होगा। 27/9/14
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मंत्र सिद्धि 
मन्त्रों की सिद्धि के लिए नव रात्रि में साधना की जाती है, पर मन्त्र क्या हें, कितने जानते हें?
संस्कृत या किसी भाषा में समझ न आने वाला कोई शब्द के जाप अदि से सिद्धि नहीं मिल सकती। 
हर छोटी से छोटी बात या शब्द मन्त्र हो सकता हे, केवल उसके अर्थ को समझना और मन और आत्मा में स्थापित करना और अमल में लाने से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
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 दैवी की सिद्धि 

नवरात्रि का आरंभ हो गया है। कुछ ने दैवी को प्रसन्न करने हेतु व्रत/ उपवास और साधना का भी प्रारम्भ कर दिया है। 

यदि आप वास्तव में पाखंडी नहीं है, और वास्तव में दैवी को सिद्ध करना (प्रसन्न करना) तो यदि केवल एक संकल्प लें, की आज से दैवी स्वरूप स्त्रियॉं को प्रताड़ित करना, उन्हे बुराभला कहना, मार पीट करना, बात बे बात पर अपमानित करना) की आदत, कुत्सित और गंदी भावना से देखना, छोड़ते नहीं हें, तो आपसे दैवी प्रसन्न कदापि नहीं हो सकतीं, चाहे आप व्रत उपवास कुछ भी न करें। 
याद रखें की हर अपराध की एक सीमा होती है, फिर महिषासुर आदि की तरह वह नष्ट हो जाता है। 
25/09/14
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सच्चा मंत्र 
सकल पदारथ हें जग माहीं, कर्म हीन नर पावत नाहीं।

यह एक एसा मन्त्र हे जिसे सभी को हमेशा याद रखना ऒर अमल में लाना चाहिए।
भाग्य के भरोसे कुछ भी प्राप्ती की आशा व्यर्थ है।
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हिन्दू (सनातन ) धर्म की विशेषता। 
सनातन हिन्दू धर्म को छोड़कर लगभग हर धर्म में उसके अनुयाई प्रतिदिन, प्रति सप्ताह, या उस धर्म के नियमानुसार, उनके धर्म स्थल पर नहीं जाते, या निर्देशानुसार पुजा अर्चना, ईबादत आदि नहीं करते तो उन्हे उस धर्म का अनुयाई नहीं माना जाता। उन्हे दंडित किया जाता है। 
पर कोई हिन्दू कभी भी मंदिर न जाए तब भी वह हिन्दू ही कहलाता है। 
एसा इसलिए है की हिन्दू धर्म प्रत्येक को अपनी आत्मा की आवाज पर स्वतंत्रता से निर्णय करने की छूट देता है।
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आस्तिकता 
हम भोतिक वादी हें,और ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते।
पूर्व में जो घट चुका उसे बदल नहीं सकते और भविष्य में क्या होने वाला हे इस पर हमारा अधिकार नहीं, तो फिर क्यों न परिस्थिति पर छोड़ दिया जाये और सोचा जाये की सब अच्छा होगा, तो फिर यह क्यों न माना जाये की सब अच्छा ही होगा तो क्या इसे किसी शक्ति की मर्जी माना नहीं जा सकता? 
क्या?यहीं ईश्वर का होना सिद्ध हो जाता है।
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मन की आवाज 
अकसर हम मन की आवाज को अनसुना कर देते हैं। हमारी कथित तर्कबुद्धि दिल की हल्‍की सी आवाज को कहीं दबा देती है। हम देख और सुन ही नहीं पाते उस इशारे को, हमें वह आवाज जरूर सुननी चाहिये। इस आवाज को अनसुना करना हमें मुश्किल में फंसा देता है। बेशक भौतिक सुविधायें हमारे लिए जरूरी हैं, लेकिन इससे सच्‍चा सुख नहीं मिलता। अपने दिल की सुनिये, भोतिक सुविधाओं से हटकर विश्वास/ समर्पण/प्रेम ही सच्‍चा सुख दिला सकता है।
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बड़ा शत्रु 
हमारे अपने ही हमारे सबसे बड़े शत्रु होते हें, क्योंकि ज्ञात शत्रु यदि कष्ट पहूंचाते हें तो हम इसके लिए तैयार रहते हें और सामना कर पाते हें, अपने का आक्रमण सब कुछ समाप्त कर देता है और निराशा को जन्म देता है। अपनों को जानना चाहिए कि वह केवल स्वयं कि खुशी के लिए जीवित नहीं कोई अन्य भी हें जो उससे अपेक्षा रखते हें। 
जीवन कि इस सच्चाई को जीवन में उतारने वाला ही अंत में सब सुख पाता है।
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मित्रता और विश्वास
मित्रता और विश्वास स्थापित करने के लिए शीघ्रता अच्छी नहीं होती। जिस तरह परिपक्व व्रक्ष और पोधे पर ही फूल और फल लगता है, उसी प्रकार मित्रता और विश्वास का फल, सम्बन्धों की परिपक्वता पर ही फूलता है। 
पहिले समय के साथ इन्हे बढ्ने दिया जाए, स्नेह और मधुरता से सींचा जाएँ, सहयोग की खाद से फलित किया जाए, समर्पण से स्थिर और द्रड किया जाए, मित्रता और विश्वास स्वयं ही उत्पन्न जाएगा, किसी को इस बात को कहने की जरूरत भी नहीं होगी, जब यह मित्रता, विश्वास फूलेगा फलेगा तो सारा संसार स्वत: जान जाएगा।
क्षमा 
क्षमा मांगने का यह अर्थ कदापि नहीं होता की क्षमायाचना करने वाले ने कोई अपराध किया ही हो! यह विनम्रता का प्रतीक है। जो जितना अधिक विनम्र होगा उतना ही अधिक झुकता रहेगा। हरे भरे फलों से लदे ब्रक्ष ही झुकते हें। जो घमंड में चूर होते हें वे शीघ्र ही सूखे पेड़ की तरह गिर कर नष्ट हो जाया करते हें। 

सभी हरे भरे पेड़ों को चाहते हें, वहीं सूखे पेड़ों को शीघ्र हटा देना आवश्यक समझते हें।  
मधु सूदन 
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क्षणिक जोश,अधेर्य,निराशा,और आत्म विश्वास की कमी -ये "नास्तिकता" के चिन्ह हें।
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अपने को बड़ा मान लेने से केवल अपनी ही हानी नहीं होती, उन्नति भी रूक जाती हे क्योंकि ओरों को तुच्छ समझ उनसे कुछ सीख नहीं पाते। 
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अहंकार कई बार आत्म सम्मान के रूप में आकर हमें धोखा दे जाता हे! "मान या सम्मान" तो वह हे,जिसकी चिंता हमें न करनी पड़े।
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29/02/2012
आजकल नेताओ को कोसने की बीमारी चल पड़ी हे ,कभी कभी मेरे मन में यह शंका उठ खड़ी होती हे,की कोसने वाले खुद तो नेतागिरी के रोग से  ग्रस्त तो नहीं।
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नेता बनाने की इच्छा बुरी नहीं, पर ओरों को कोस कर नेता बनाने का उदाहरण इतिहास में शायद ही कहीं मिले।
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कभी कभी कुछ मित्र कहते हें की "मिठास"से कभी कभी धोखा हो जाता हे। इससे तो खरी और कडवी बात बहुत अच्छी होती हे। में कहता हूँ,यदि एसा हे! तो कसूर मेरी मीठी बोली का नहीं मेरा हे, बात खरी भी हो और मीठी भी, तो क्या बुरा हे।
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२८/०२/२०१२ 
जब भी कोई निंदा करताहे तब में दो बातें   सोचता हूँ,- निंदा सच्ची हे या या झूठी? यदि सच्ची हे तब में तब तो में उसका सर्वथा पात्र हूँ। मुझे निंदक का धन्यवाद करना चाहिए की उसने मेरे रोग की और मेरा ध्यान आकर्षित किया; यदि झूठी, हे तो कसूर उसका हे, न की मेरा ! में क्रोध कर के  उसके अपराध की सजा स्वयं को क्यों दूँ
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एक मित्र ने दुसरे मित्र की तारीफ की उन्होंने कहा- "अब विशेषणों का युग नहीं , क्रिया-विशेषणों का  का युग हे!"
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कुछ मित्र कहते हें - सब अपने को 'हम' लिखते हें, तुम 'मैं' क्यों लिखते हो । मैं कहता हूँ,"इसलिए की वे बड़े हें,और मैं अपने को मामूली आदमी समझता हूँ। वे अपने को प्रतिनिधि समझते हें,और मैं अपने को मामूली सेवक। व्यवहार भी तो यही बताता हे- बड़े आदमी अपने को "हम" कहते हें, छोटे "मैं"।
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27/12/2012
जो दूसरों में हमेशा बुराई देखता हे,वह आशावादी नहीं हो सकता-बड़े काम उसके भाग्य में हें ही नहीं!
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समझदारी कहती हे,- देखो तुम भले हो-भोले हो, दुनिया तुमको ठग लेगी, में  कहता हूँ, इससे मेरा क्या बिगड़ेगा, दुनियां दुख: पायेगी। बुरा वह करती हे, न की में!
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क्या इसीलिए की दुनिया में बुरे और ठग लोग हें,में अपने अच्छे और हितकर कामों  के विस्तार को रोकूँ? इसीलिए की चूहे खा जायेंगें के भय से -क्या महाजन अनाज संग्रह नहीं करे? या ओले गिरेंगे-इस भय से-क्या किसान खेती नहीं करना छोड़ दे? 
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26/02/.2012

अपने को समझदार और दुनिया के व्यवहार में स्वयं को कुशल समझने वाले कुछ मित्र कहा करते हें - "सेवा भी दुकानदारी हे - दुकानदारी के ढंग से ही करनी चाहिए"! 
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पर जहाँ तक में जानता हूँ, "राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, शंकराचार्य,दयानंद, तिलक,गोखले, गाँधी, ईसा-मसीह," तो  दुकानदारी-दुनियादारी नहीं सीखे थे!  
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२५/०२/२०१२ 
में अपने को साम्यवादी कहता हूँ। धन,एश्वर्य,और सत्ता का उपभोग करने वालों को में दोषी मानता हूँ। पर आश्चर्य यह हे की धन,एश्वर्य,या सत्ता मिलने पर भी में वेसा ही करने लग जाता हूँ ।
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में समाज हित  के लिए साम्यवादी बना हूँ या अपने लिए।
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विद्वान अथवा विशेष योग्यता रखने वाला अभिमानी, धन के अभिमानी को केसे सफलता पूर्वक "कोस" और सुधार सकता हे। 
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२४/०२/२०१२ 
गिराने की चेष्टा करना, सुधार का उद्योग नहीं करना ही हे। सुधारक तो ऊँचा उठाना चाहता हे।
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भूल करना मनुष्य के लए स्वभाविक  हो सकता हे; पर भूल का समर्थन "शेतान"का काम हे।
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विद्या का अभिमान, और धन का अभिमान दोनों बराबर नहीं,  वरन विद्या अथवा विद्वान् का अभिमान  अधिक अस्वाभिक अतएव दुषणीय हे । विद्या योग्यता और ज्ञान का फल तो होना चाहिए-"विनय"। अभिमान तो अविद्या का "पुत्र" हे। 
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==============================================२३/०२/२०१२ 
जो दोष खोजता हे,वह मानो इस बात का डिन्डोरा पिटता हे की "मुझमे दोष देखने की शक्ति हे-मुझे दोष देखने का शोक हे-स्वयं मेरा ह्रदय दोष से व्याप्त हे।मेरे दोष ही मुझे ओरो में देख पड़ते हें।" यही बात गुण-ग्राहक पर भी चरितार्थ होती हे।   
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वही मनुष्य सफल नेता हो सकता हे, जो केवल गुणों की खोज में रहता हे,और यदि कहीं दोष दिखाई दिया तो उसे दुनियां में नहीं  फेलाता,वरन सावधानी से दूर करने की चेष्ठा करता हे।
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आलोचक,और सुधारक दो अलग अलग चीज होती हें,आलोचक अपनी छाप दूसरों पर विठाना(थोपना) चाहता हे,सुधारक प्रेम मय,मधुरता-मय,उपालंभ से काम
 लेता हे।
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जो  मनुष्य केवल दोष की खोज करता हे,वह निम्न हे,जो गुण और दोष दोनों की खोज करता हे वह मध्यम हे, और जो केवल गुणों पर ध्यान रखता हे वह उत्तम हे।
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२२/०२/२०१२  
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में स्वार्थी हूँ,क्योकि में गुण का ग्राहक हूँ! में ओरो के गुण, लेने की कोशिश करता हूँ!
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मेरा पडोसी परमार्थी हे,क्योकि वह समालोचक हे,वह ओरो के दोष दिखाता हे,उन्हें अपने दोष दूर करना का मोका देता हे!
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दूसरो में जो बुराइयाँ-भलाईयां हमे दिखा करती हें,वे प्रायःहमारे ही ह्रदय के बुरे भले भावों का प्रतिबिम्ब मात्र होती हे।यदि हमारे अन्दर बुरे तत्व अधिक हें,तो हमें अपने सामने वाले की बुराइयाँ पाहिले और अधिक दिखाई देंगी,और अच्छे तत्व अधिक हे तो अच्छाइयाँ दिखाई देंगी।
 *२१/०२/२०१२*
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शिव रात्रि,सोमवार,२०/०२/२०१२
मेरे दरवाजे के पास कुछ कांटे वाले पेड़ पोधे लगे हें ,कुछ मित्र कहते हें,ये कांटे तुमने क्यों लगा रखे हें,में कहता हूँ "सहनशीलता का नमूना हे"| भगवान शिव भी तो "विष/सर्प/और समस्त  शूल, ही तो धारण करते थे,उन जेसी सहनशीलता यदि मुझमे हो जाये तो ही में शिव आराधक कहला सकूँगा, "जय महाकाल"  |  
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मधु सूदन व्यास २०/०२/२०१२




ओघड दानी शिव,

 समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हें,उनका स्वरुप,और महिमा हर एक वर्ग को गरीब/अमीर/सुन्दर/कुरूप/शरीर से विकृत/भूत/प्रेत/पिशाच/देव/दानव/मनुष्य/छोटा/बड़ा, सभी को आकर्षित करती हे,इसी कारण वे महादेव कहलाये | महाशिव रात्री के इस अवसर पर उनके इस वर्णन को अपने जीवन में शामिल करके ही हम सब दीनदुखियो,और समाज के हर दलित वर्ग के प्रति अपना नजरिया बदलकर ही सच्चे शिव आराधक बन सकते हें| यदि हम यह न कर सके तो शिव (कल्याणकारी) की आराधना पूजन व्यर्थ होगी| महाशिव रात्रि के यह पुण्य दिवस हमको यही सोचने और करने का अवसर देता हे|

"जय शिव शम्भू"

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१९/०२/२०१२
 पर कितने ही फूल बन में खिल कर मुरझा जाते हें।मनुष्य उनका पता नहीं पाता। योग्यता होना एक वस्तु हे,योग्यता का परिचय देना दूसरी वस्तु (बात)हे। योग्यता के अभाव को योग्यता समझ लेना और उसका ढिंढौरा पीटना दूसरी वस्तु (बात) हे।
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१८/०२/२०१२
योग्यता छुपी हुई नहीं रहती ! योग्य की कदर (इज्जत) हुए विना नहीं रह सकती! फूल खिलता हे ,तो लोग उसकी और खीच कर चले जाते हें! महक फेलती हे तो लोग खोजते हुए वहीँ पहुच जाते हें।
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१७/०२\२०१२ 

जब में अपने गुण और दूसरो के दोष देखता हूँ तब मालूम होता हे ,"में कोई महात्मा नहीं तो साधू पुरुष अलबत्ता हूँ "

पर जब में "अपने में दोष और दूसरो के गुण" देखता हूँ, तब मेरा ह्रदय कहने लगता हे,- "मो सम कोंन कुटिल खल कामी"|