बहू को हूबहू रहने दो ।

बहू को हूबहू रहने दो ।  
उद्धव जोशी
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           सामान्‍य चर्चाओं में यह कहते सुनते पाया जाता है कि यदि बहू को बेटी के समान माने तो सभी समस्‍याओं का हल हो सकता है, किन्‍तु बहू को यह दर्जा आज तक न तो किसी परिवार व्‍दारा दिया गया है और न ही भविष्‍य में इसकी उम्‍मीद हमें करनी चाहिए क्‍यों कि रिश्‍तों का अपनापन होता है । रिश्‍तों के जो नाम दिये गये हैं उनके प्रभाव अनुसार ही यदि उनकी गरिमा को बनाये रखा जाय तो रिश्‍तों के बीच उठने वाली समस्‍या अपने आप दम तोड देगी । वर्तमान का ज्‍वलन्‍त विषय बेटी को बहू मान कर चलने का है । अत- हमें सर्वप्रथम बेटी और बहू के कामों का प्रथक प्रथक विश्‍लेषण करना आवश्‍यक होगा ।
 बेटी' 
बेटी माता पिता के दिल को स्‍पर्श करने वाला नाम है। बेटी को वैसे तो पराया धन माना जाता है किन्‍तु जब तक शादी का जोडा पहन कर बा‍बूल के घर से विदा नहीं हो जाती उसे परिवार का हर सदस्‍य भरपूर स्‍नेह देता है।बेटी अपने परिवार से जो संस्‍कार लेकर जाती है बहू बन कर अपने पिया के परिवार को उन संस्‍कारों के माध्‍यम से अपना बनाने का प्रयास करती है ।बेटी के लिये माता पिता अच्‍छा घर और वर देख कर उसके पीले हा‍थ कर विदा करते हैं। बेटी जिस माता के कोंख से जन्‍म लेती है वह माता अपनी जायी कन्‍या को ही विशेष रूप से अपना मानती है अन्‍य को उस अनुपात में नहीं ।विवाहिता बेटी भी अपने पीहर आने  पर बहुत खुश होती है क्‍योंकि यहां उसे अपनी चंचलता की सुगंध को खुली हवा में बिखेरने का भरपूर समय मिलता है । 
बेटी को लाडली,कूसूमकली,चांद का टुकडा,कन्‍यारत्‍न,आंखो की पुतली आदि कई नामों सुसज्जित किया जाता है। बेटी की विदाई पर आंसुओं की झडी थमने का नाम नहीं लेती है। बेटी नदी के प्रवाह की तरह अल्‍हड है। इस प्रकार बेटी का कर्मक्षेत्र उसके माता पिता का आंगन ही है।
               बहू .
 सिक्‍के के दो पहलू के समान ही बेटी के भी दो पहलू होते हैं एक बेटी और दूसरा बहू। सिक्‍के के दोनों पहलूओं का हम एक साथ नहीं देख सकते उसी प्रकार बेटी और बहू के कार्य व्‍यवहार को भी प़थक प्रथक रूप में देख सकते हैं । माता पिता के लिये बेटी पराया धन है तो उस पराये धन को बेटे के माता पिता अपनी बहू बनाने के लिये कडी परीक्षा लेते हैं। उसके गुण,आचार व्‍यवहार संस्‍कार सुन्‍दरता आदि अनेक पहलुओ से उसकी जांच पडताल होती है । इतनी कठिन परीक्षा के बाद भी उत्‍तीर्ण होना परीक्षक की क़पा पर निर्भर करता है । ऐसी अग्नि परीक्षा बेटीयों को कई बार देना पडती है तब कही जाकर वह बेटी से बहू बनती है ।फिर नया घर नया परिवार और नया संसार उवके उसे अपने आपको दूध में शकर जैसा घुल कर अपनी मिठास का आभास कराना पडता है ।ससुराल परिवार बहू से पूर्णरूपेण सन्‍तुष्‍टी चाहता है फिर भी उसके उपर असन्‍तुष्‍टी का ग्रहण मंडराता रहता है।
                           बेटी और बहू के कार्य व्‍यवहार के विभिन्‍न पहलूओं को जानने के बाद हम समझ सकते हैं कि बेटी प्राथमिक शाला है जहां उसे कठिन परीक्षा देने की चिन्‍ता नहीं रहती किन्‍तु बहू के रूप में विकसित होने के लिये उसे उच्‍चस्‍तरीय परीक्षाओं से गुजरना पडता है। अबभला कैसे विश्‍वास करें कि इतनी परीक्षाओं के लेने के बाद बहू को कोई बेटी मानेगा और बेटे को दामाद जो कभी संभव ही नहीं है ।
                            बेटी आराम है तो बहू परिश्रम,बेटी चिन्‍ता है तो बहू निश्चिन्‍तता ,बेटी धूप है तो बहू छांव,बेटी करज है तो बहू एफडी,बेटी घर का आंगन है तो बहू घर की मर्यादा । कहा भी जाता है कि मूल से ब्‍याज ज्‍यादा प्‍यारा होता है । बहू के कोंख से बेटी का जन्‍म होता है घर मे कलह और बेटे को जन्‍म दिया है तो बैण्‍ड बाजे ा क्‍या यही व्‍यवहार अपनी बेटी के साथ होता है ।  भोर से सुहानी रात  तक बेटी के कार्य व्‍यवहार में समय की लकीरों को लांघ कर जो अल्‍हडता दिखाई देती है क्‍या बहू के कार्यकलापों को हम इस रूप में स्‍वीकार कर सकेगें । 
अत- बहू को हूबहू ही रहने दें । बहू को अपने स्‍नेह की महक से सराबोर कीजिए ,आपके घर का कोना कोना महक जायेगा । केवल बहू को बेटी के समान मान लेना ही पर्याप्‍त नहीं होता हे।
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