विधि के विधानानुसार धरती के प्राणी की म्रत्यु होना सु निश्चित है । जब मनुष्य का अंतिम समय हो तो उस काल में भूमि को जल व गोबर से लेप कर शुध्द किया जाता है। गोबर में विध्युत निरोधकारिणी शक्ति है। मनुष्य के प्राणवायु निकलने के दस व्दार माने गये हैं । ब्रहमरन्ध्र याने कपाल से प्राणवायु निकले तो व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता पर यह सौभाग्य योगियों एवं नित्य प्राणायाम करने वाले इष्टबली व्यक्तियों को ही मिल पाता है। आम व्यक्ति का ओज प्राय निम्नगामी हो जाता है। मनुष्य को चित्त लिटाने से उसके मल व्दार भूमि से संसर्ग कर जाते हैं तथा भूमि की आकर्षण् शक्ति प्राणों को चुम्बक की तरह खींच कर गुप्त व्दार से निकालती है। इस दुर्गति से बचने के लिए मानव शरीर व प्रथ्वी के बीच गोबर का लेपन किया जाता है। गोबर में फास्फोरस नामक तत्व बहुतायत से पाया जाता है । वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह पता चला है कि गोबर से बने घरों में परमाणु बम के किटाणु भी निष्क्रिय हो जाते हैं । सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि आकाश से गिरने वाली बिजली गोबर के ढेर पर गिरते वहीं समा जाती है। जिस प्रकार स्याही सोख स्याही के धब्बे को फैलने से रोकता है वैसे ही गोबर विध्युत ताडन को सोखने की क्षमता रखता है। म्रत शरीर में कई प्रकार के संक्रामक रोगों के कीटाणु होते हैं । म्रत्यु के समय उपस्थित कुटुम्बीजनों के स्वास्थ्य संरक्षण हेतु भी गोबर का चौका होना अनिवार्य माना गया है।
उस भूमि को कुशाओं से आच्छादित किया जाता है ।कुश पवित्र तथा असंक्रामक होता है।
म्रत व्यक्ति को को उत्तर दिशा की ओर सिर करके सीधा लिटा दिया जाता है। मरणकालीन सभी विधियों का मूल सिध्दान्त है कि प्राणों का उत्सर्ग दशम व्दार से हो ,प्राण उर्घ्व होता है। दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर निरन्तर चलने वाला विध्युत प्रवाह कम्पास यन्त्र की सुई की भांति मनुष्य के निकलते हुवे प्राणों को निम्नगामी बना देता है। ध्रुवाकर्षण्ा की इस प्रक्रिया को रोकने के लिए उत्तर में सिर व दक्षिण में पांव करने की प्रथा की व्यवस्था मरणकाल में की गई है।
तुलसी पत्र और गंगाजल मुंह में दिया जाता है। तुलसी में पारद व सुवर्ण तत्वों का समावेश है। गंगोदक मे सर्वरोग कीटाणु संहारिणी दिव्य शक्ति है। अन्तिम समय में इनसे बढकर अन्य कोई कल्याणकारी महौषधि नहीं हो सकती ।
अन्तिम समय में दीपक लगाने से वह म्रतक आत्मा के पथ को आलोकित कर उसे गन्तव्य पर पहुंचने में सहायक होता है। विज्ञान का सिध्दान्त है कि अंश अपने अंशी के पास पहुंच कर ही विश्राम लेता है। चैतन्य प्राण वायु के रूप में प्रवाहित अग्नितत्व अपने उदगम स्थल सूर्य पिण्ड में पहुंच कर ही विश्राम लेता है । उपस्थित कुटुम्बीजन गीतापाठ या हरिनाम का संकीर्तन करते हैं । ब्राहमण वर्ग में मनुष्य के शरीर से सूती वस्त्र उतार कर शाल या कम्बल ओढा देते हैं ।
भारतीय मान्यताओं के अनुसार शवदाह के समय ज्येष्ठ पुत्र अर्थी के डण्डे से कपाल के स्थान को तीन बार स्पर्श करता है एवं घ्रत डालता है जिसे कपाल क्रिया कहते हैं । जब पिता का देहान्त हो जाता है तो पुत्र पिता के वात्यल्य भाव को स्मरण करके बार बार विव्हल हो उठता है और सभी कुटुम्बियों के सामने प्रतिज्ञा करता है कि हे पित्रदेव आपकी और्ध्व दैहिक कर्म कलापों की क्रिया कमी को अब मैं पूरा करूंगा ,यही कपाल क्रिया का वास्तविक भाव होता है।
म्रतक के साथ श्मशान भूमि तक जाने वाले संबंधियों एवं विजाजियों को वस्त्र सहित स्नान की आज्ञा शास्त्र देते हैं । इसका कारण यह है कि म्रतक जाने किन किन रोगों से बिध्द होकर शरीर त्यागने को विवश होता है । अनेक संक्रामक रोगों के किटाणु दग्ध होने के पूर्व उसके शरीर पर चिपके रहते हैं इस कारण वस्त्र सहित स्नान करने से सक्रामक रोगों से बचाव हो जाता है।
धार्मिक परिभाषा में शव की पंचांग अस्थियों को फूल कहा जाता है। यह शब्द म्रतात्माओं के प्रति अगाध श्रध्दा और समादर का सूचक है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार फूल के बाद ही फल की निष्पत्ति होती है । सन्तान तो फल हैं ,पूर्वज फूल हैं । इस वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से भी पूर्वजों की अस्थि को फूल कहते हैं ।
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार म्रतक की अस्थियां जब तक गंगा में रहती है म्रतात्मा शुभ लोकों मे निवास करता हुआ आनन्दित रहता है । अस्थियों के वैज्ञानिक परीक्षण से यह सिध्द हुआ है कि उसमें फास्फोरस अत्यधिक मात्रा में होती है जो खाद के रूप में भूमि को उपजाउ बनाने में विशेष क्षमता रखती है। गंगा हमारे क्रषि प्रधान देश की सबसे बडी नदी है अपने निरन्तर गतिशील प्रवाह के कारण इसके जल की उपजाउ शक्ति नष्ट न हो जाये इसलिए भी इसमें अस्थिप्रवार की परम्परा वैज्ञानिक सुझ बुझ से रखी गई है। म्रत्यु के बाद धार्मिक क्रिया करना इसलिए आवश्यक है । गीता के अनुसार इसके बाद सदा के लिए जीवन मरण के बन्धन से छूट जाता है।
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इस साईट पर उपलब्ध लेखों में विचार के लिए लेखक/प्रस्तुतकर्ता स्वयं जिम्मेदार हे| इसका कोई भी प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा हे|सभी समाज जनों से सुझाव/सहायता की अपेक्षा हे|
उस भूमि को कुशाओं से आच्छादित किया जाता है ।कुश पवित्र तथा असंक्रामक होता है।
म्रत व्यक्ति को को उत्तर दिशा की ओर सिर करके सीधा लिटा दिया जाता है। मरणकालीन सभी विधियों का मूल सिध्दान्त है कि प्राणों का उत्सर्ग दशम व्दार से हो ,प्राण उर्घ्व होता है। दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर निरन्तर चलने वाला विध्युत प्रवाह कम्पास यन्त्र की सुई की भांति मनुष्य के निकलते हुवे प्राणों को निम्नगामी बना देता है। ध्रुवाकर्षण्ा की इस प्रक्रिया को रोकने के लिए उत्तर में सिर व दक्षिण में पांव करने की प्रथा की व्यवस्था मरणकाल में की गई है।
तुलसी पत्र और गंगाजल मुंह में दिया जाता है। तुलसी में पारद व सुवर्ण तत्वों का समावेश है। गंगोदक मे सर्वरोग कीटाणु संहारिणी दिव्य शक्ति है। अन्तिम समय में इनसे बढकर अन्य कोई कल्याणकारी महौषधि नहीं हो सकती ।
अन्तिम समय में दीपक लगाने से वह म्रतक आत्मा के पथ को आलोकित कर उसे गन्तव्य पर पहुंचने में सहायक होता है। विज्ञान का सिध्दान्त है कि अंश अपने अंशी के पास पहुंच कर ही विश्राम लेता है। चैतन्य प्राण वायु के रूप में प्रवाहित अग्नितत्व अपने उदगम स्थल सूर्य पिण्ड में पहुंच कर ही विश्राम लेता है । उपस्थित कुटुम्बीजन गीतापाठ या हरिनाम का संकीर्तन करते हैं । ब्राहमण वर्ग में मनुष्य के शरीर से सूती वस्त्र उतार कर शाल या कम्बल ओढा देते हैं ।
भारतीय मान्यताओं के अनुसार शवदाह के समय ज्येष्ठ पुत्र अर्थी के डण्डे से कपाल के स्थान को तीन बार स्पर्श करता है एवं घ्रत डालता है जिसे कपाल क्रिया कहते हैं । जब पिता का देहान्त हो जाता है तो पुत्र पिता के वात्यल्य भाव को स्मरण करके बार बार विव्हल हो उठता है और सभी कुटुम्बियों के सामने प्रतिज्ञा करता है कि हे पित्रदेव आपकी और्ध्व दैहिक कर्म कलापों की क्रिया कमी को अब मैं पूरा करूंगा ,यही कपाल क्रिया का वास्तविक भाव होता है।
म्रतक के साथ श्मशान भूमि तक जाने वाले संबंधियों एवं विजाजियों को वस्त्र सहित स्नान की आज्ञा शास्त्र देते हैं । इसका कारण यह है कि म्रतक जाने किन किन रोगों से बिध्द होकर शरीर त्यागने को विवश होता है । अनेक संक्रामक रोगों के किटाणु दग्ध होने के पूर्व उसके शरीर पर चिपके रहते हैं इस कारण वस्त्र सहित स्नान करने से सक्रामक रोगों से बचाव हो जाता है।
धार्मिक परिभाषा में शव की पंचांग अस्थियों को फूल कहा जाता है। यह शब्द म्रतात्माओं के प्रति अगाध श्रध्दा और समादर का सूचक है। वैज्ञानिक मान्यता के अनुसार फूल के बाद ही फल की निष्पत्ति होती है । सन्तान तो फल हैं ,पूर्वज फूल हैं । इस वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से भी पूर्वजों की अस्थि को फूल कहते हैं ।
हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार म्रतक की अस्थियां जब तक गंगा में रहती है म्रतात्मा शुभ लोकों मे निवास करता हुआ आनन्दित रहता है । अस्थियों के वैज्ञानिक परीक्षण से यह सिध्द हुआ है कि उसमें फास्फोरस अत्यधिक मात्रा में होती है जो खाद के रूप में भूमि को उपजाउ बनाने में विशेष क्षमता रखती है। गंगा हमारे क्रषि प्रधान देश की सबसे बडी नदी है अपने निरन्तर गतिशील प्रवाह के कारण इसके जल की उपजाउ शक्ति नष्ट न हो जाये इसलिए भी इसमें अस्थिप्रवार की परम्परा वैज्ञानिक सुझ बुझ से रखी गई है। म्रत्यु के बाद धार्मिक क्रिया करना इसलिए आवश्यक है । गीता के अनुसार इसके बाद सदा के लिए जीवन मरण के बन्धन से छूट जाता है।
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