शक्ति पीठ चामुंडा, बेजनाथ, ओर ज्वाला मुखी की यात्रा ।

हमारा देश न केवल विशाल है बल्कि विविधताओं के एक संकलन भी है विविध भाषा, विविध स्थान, विविध लोग, विविध जलवायु , कहीं बर्फीले स्थान हें, तो कहीं तपता रेगिस्तान, कहीं पानी ही पानी है, तो वही कुछ जगह पानी का नामोनिशान भी नहीं। इस बारे में लिखे तो पूरा एक लेख ही बन जाएगा। अत: इस विविधता ओर आश्चर्यों से भरपूर मंदिर ज्वालामुखी की ओर प्रस्थान किया। इस स्थान पर चट्टान में दरारें से एक निरंतर जलती नीली लौ के रूप में अग्नि प्रकट हो रही है। यह तो निश्चित है की कोई ज्वलन शील गेस निकलकर जल रही है, चाहे केल्सियम कारबाइट ओर पानी के संपर्क से बनी एसीटिलीन  गेस हो या पेट्रोल गेस, या कोई ओर पर सेकड़ों वर्षो से निरंतर निकालना ओर प्रज्वलित रहना क्या अजूबा नहीं लगता।
इस अजूबे के दर्शन को हम निकल पढे कागडा की ओर।
 51 शक्तिपीठों में एक चामुंडा देवी 
 प्रात: 5 बजे कुल्लू से चले लक्ष्य था 233 किलोमीटर दूर ज्वालामुखी यह हिमांचल प्रदेश के एक नगर का नाम बन गया है।  मंडी-पठानकोट रोड, ओर NH 20-ओर 21 फिर SH 19 द्वरा कुछ चक्कर लगते हुए पहिले पहुचे 126 Km पर स्थित जोगिंदर नगर के पास स्थित हिन्दू श्रद्धालुओं का मुख्य केंद्र और 51 शक्तिपीठों में एक चामुंडा देवी देव भूमि हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित मंदिर में।
 बानेर नदी के तट पर बसा यह मंदिर महाकाली को समर्पित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब भगवान शंकर माता सती को अपने कंधे पर उठाकर घूम रहे थे, तब इसी स्थान पर माता का चरण गिर पड़ा था,  और माता यहां शक्तिपीठ रूप में स्थापित हो गई।  चामुंडा देवी मंदिर भगवान शिव और शक्ति का स्थान है।  भक्तों में मान्यता है, कि यहां पर शतचंडी का पाठ सुनना और सुनाना श्रेष्ठकर है, और इसे सुनने और सुनाने वाले का सारा क्लेश दूर हो जाता है।
      दुर्गा सप्तशती के सप्तम अध्याय में वर्णित कथाओं के अनुसार एक बार चण्ड-मुण्ड नामक दो महादैत्य देवी से युद्ध करने आए तो, देवी ने काली का रूप धारण कर उनका वध कर दिया।  माता देवी की भृकुटी से उत्पन्न कलिका देवी ने जब चण्ड-मुण्ड के सिर देवी को उपहार स्वरुप भेंट किए तो देवी भगवती ने प्रसन्न होकर उन्हें वर दिया कि तुमने चण्ड -मुण्ड का वध किया है,  अतः आज से तुम संसार में चामुंडा के नाम से विख्यात हो जाओगी।  मान्यता है कि इसी कारण भक्तगण देवी के इस स्वरुप को चामुंडा रूप में पूजते हैं।
 बैजनाथ शिव मंदिर 
 चामुंडा में दर्शन अभिषेक कर बेजनाथ शिव मंदिर जो की रास्ते का अगला स्थान था, यह चामुंडा से 22 KM है।
   १३ वीं शताब्दी में बने शिव मंदिर बैजनाथ अर्थात “वैद्य + नाथ” जिसका अर्थ है चिकित्सा अथवा ओषधियों का स्वामी,  भगवान् शिव, को वैद्य + नाथ भी कहा जाता है।   पठानकोट-मंडी नेशनल हाईवे के बिलकुल पास ही स्थित है। इसका पुराना नाम ‘कीरग्राम’ था परन्तु समय के यह मंदिर के नाम से प्रसिद्ध होता गया और ग्राम का नाम बैजनाथ पड़ गया।  मंदिर के उतर-पश्चिम छोर पर बिनवा नदी, जो की आगे चल कर ब्यास नदी में मिलती है, बहती है।
   अत्यंत आकर्षक सरंचना और निर्माण कला का उत्कृष्ट नमूने के रूप के इस मंदिर के गर्भ-गृह में प्रवेश एक ड्योढ़ी से होता है, जिसके सामने एक बड़ा वर्गाकार मंडप बना है, और उत्तर और दक्षिण दोनों तरफ बड़े छज्जे बने है, मंडप के अग्र भाग में चार स्तंभों पर टिका एक छोटा बरामदा है, जिसके सामने ही पत्थर के छोटे मंदिर के नीचे खड़े हुए विशाल नंदी बैल की मूर्ति है। पूरा मंदिर एक ऊंची दीवार से घिरा है और दक्षिण और उत्तर में प्रवेश द्वार हैं।  मंदिर की बाहरी दीवारों में मूर्तियों, झरोखों में कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं। बहुत सारे चित्र दीवारों में नक़्क़ाशी करके बनाये गये हैं. बरामदे का बाहरी द्वार और गर्भ-गृह को जाता अंदरूनी द्वार अंत्यंत सुंदरता और महत्व को दर्शाते अनगिनत चित्रों से भरा पड़ा है।
     कहा जाता है की रावण ने भगवान शिव को अपने दस शिर की आहुतियाँ दी थी । 
 भगवान शिव ने रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर उसके साथ लंका एक पिंडी के रूप में चलने का वचन दिया और साथ ही यह शर्त रखी की वह इस पिंडी को बिना जमीन में रखे सीधा लंका पहुचाए।  शिव की इस अलोकिक पिंडी को लेकर रावण लंका की और रवाना हुआ रास्ते में कोरग्राम (अब बैजनाथ ) नामक स्थान पर रावण को लघुशंका महसूस हुई और उन्होंने वहां खड़े एक व्यक्ति को थोड़ी देर के लिए पिंडी सौंप दी। लघुशंका से निवृत होकर रावण ने देखा की जिस व्यक्ति के हाथ में वह पिंडी दी थी वह ओझल हो चुके हैं और पिंडी जमीन में स्थपित हो चुकी थी। रावण ने स्थापित पिंडी को उठाने के काफी प्रयास किये लेकिन सफलता नही मिल पाई । तब  उन्होंने इस स्थली पर घोर तपस्या की और अपने दस सिरों की आहुतियाँ हवन कुंड में डाली। तपस्या से प्रसन होकर रूद्र महादेव ने रावण के सभी सिर पुन: स्थापित कर दिए।
     दशहरा उत्सव, जो सभी दूर परंपरागत रूप से रावण का पुतला जलाने के साथ मनाया जाता है लेकिन बैजनाथ में इसे रावण द्वारा की गई भगवान शिव की तपस्या ओर भक्ति करने के लिए सम्मान के रूप में मनाया जाता है।
     मंदिर के साथ बहने वाली विनवा खड्ड पर बने खीर गंगा घाट में स्नान का विशेष महत्व है श्रद्धालु स्नान करने के उपरांत शिवलिंग को पंचामृत से स्नान करवा कर उस पर विल्व पत्र, फूल, भांग, धतुरा इत्यादि अर्पित कर भोले नाथ को प्रसन करके अपने कष्टों एवं पापों का निवारण कर पुण्य कमाते है.
      लेख के अनुसार द्वापर युग में पांडवों के अज्ञात वास के दौरान उन्होने इस मंदिर का निर्माण करवाया  था। बाद में  इस मंदिर का शेष निर्माण कार्य आहुक एवं मनुक नाम के दो व्यापारियों ने 1204 ई. में पूर्ण किया था और तब से लेकर अब तक यह स्थान शिवधाम के नाम से उतरी भारत में प्रसिद्ध है।
बृजेश्वरी देवी मंदिर कांगड़ा 

जब भगवान शंकर माता सती को अपने कंधे पर उठाकर घूम रहे थे, तब इसी स्थान पर माता वक्ष गिरा था,   और माता यहां शक्तिपीठ रूप में स्थापित हो गई।
यह मंदिर इस क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था। इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। मस्जिद भी बना दी गई थी। यह मंदिर 1905 ई. में जोरदार भूकंप से भी पूरी तरह नष्ट हो गया था। 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। 
यहाँ देवी मां एक पिंडी के रूप में यहां पूजा की जाती है।  देवी को प्रसाद तीन भागों महालक्ष्मी, महाकाली और महा सरस्वती के लिए विभाजित कर चढ़ाया जाता हे। 
  ज्वालामुखी 


   बेजनाथ धाम  शिव मंदिर के दर्शन कर ज्वाला मुखी [ग्राम का नाम] की ओर चल पढे शेष लगभग 84 Km पर कर पाहुचने में रात हो गई थी अत: होटल में रुक कर प्रात: दर्शन का कार्यक्रम बनाया। अगले दिन प्रात: नहा धोकर होटल से लगभग एक Km दूर ज्वालामुखी माता के दर्शन को चल पढे। 
    ज्वालामुखी मंदिर की कथा भी सती से संबंधित है। ज्वालामुखी मंदिर में सती की जीभ गिरी थी। यात्रा की यह लोकप्रिय जगह कांगड़ा (35 कि.मी.) के साथ ही धर्मशाला (56 किलोमीटर) से दूर है।
जन श्रुतियों के अनुसार सदियों पहले किसी ग्वाले ने यहाँ आग की लपटों को देखा और तत्कालीन राजा भूमि चंद्र जो क्षेत्र के शासक थे को बताया। राजा ने यहाँ मंदिर का निर्माण किया । 
  कहा जाता है,  मुगल सम्राट अकबर ने यहाँ एक सोने का छत्र स्थापित किया।   महाराजा रणजीत सिंह गुंबद सोने का पानी चढ़ाया था। इसके आंगन में देवी की  शय्या (बिस्तर) कक्ष है। इसके दूसरी ओर मंदिर के ऊपर बाबा गोरखनाथ का मंदिर है।  इस प्राचीन मंदिर को महाराजा रणजीत सिंह ने विस्तारित किया था।  प्रथम सिख राजा खड़क सिंह द्वारा भी यह मंदिर अलंकृत किया गुंबद को  सोने से सजाया।  मंदिर के दरवाजे शुद्ध चांदी के हें।  
     तीर्थयात्री इस पवित्र स्थान में एक खोखली चट्टान से निकलती एक सदा जलती लौ को,  देवी की जिव्हा मानते हैं।  अंदर, चारों ओर परिक्रमा मार्ग के साथ, एक 3 वर्ग फुट का कुंड नुमा खड्डा है। इसकी चट्टानों की दरारों से अग्नि की लौ निकलती रहती हें।  यही महाकाली के मुंह के रूप में माना जाता है। लपटें गड्ढे में कई अन्य बिंदु से बाहर आति रहतीं हें। वे कुल में नौ कही जातीं हें, जो देवी के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करतीं हैं - सरस्वती, अन्नपूर्णा, चंडी, हिङ्ग्लाज, विंध्य वासिनी, महालक्ष्मी, महाकाली, अंबिका और अंजना।  हमको चार-पाँच ही दिखाई दीं। संभवत: गेस के अन्यत्र से आते जाते रहने से बुझ जाती होगी। पुजारी निरंतर घी की आहुती देकर सभी को प्रज्वल्लित रखने की कोशिश करते रहते हें। मंदिर के सामने दो शेर हैं। प्रमुख मंदिर के बाहर एक यज्ञ शाला भी है जहां ज्वालामुखी की अग्नि को ही सतत सभी दर्शनार्थियों द्वारा आहूती देकर सदा चेतन रखा जाता है। 
  यहाँ से निकटतम ब्रॉड गेज रेलवे स्टेशन 123 किमी दूर, पठानकोट है,  टैक्सियों और बस दोनों स्थानों पर उपलब्ध हैं।  दिल्ली से सड़क मार्ग की दूरी 473 किमी है।
  मंदिर के साथ ही लगी पहाड़ियों पर कई दर्शनीय मंदिर भी हें जहां पैदल या कुछ दूर पहिले तक टेक्सियो से जा सकते हें। इनमें नागिनी माता मंदिर (4.5 किमी, जुलाई / अगस्त में आयोजित एक मेले का स्थल) । पांडवों द्वारा निर्मित श्री रघुनाथजी मंदिर (5 किमी) जो   टेडा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है यहां है।
अष्टभूजा मंदिर (1 किमी  प्राचीन मंदिर आठ सशस्त्र भुजा वाली देवी की प्रतिमा है)।
ओर भी कई मंदिर पहाड़ी पर हें,  पर हम सभी में नहीं गए।
 दोपहर भोजन के बाद नगरकोट माता, बगुलामुखी माता के दर्शन किए। आगे चिंता पुर्णी माता (स्वर्ण जटित मंदिर) ओर प्रांगण के विशाल प्राचीन व्रक्ष जहां पुत्र की कामना से नाड़ा बांधते हें, दर्शन किया यहाँ हलवे का प्रसाद चढ़ाया जाता है, पर मान्यता के अनुसार प्रसाद वहीं बाँट-खाकर आते हें, घर नहीं लाते।
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     अगली यात्रा --  ज्वालाजी  से SH 22 ओर NH 1A पर चलते हुए लगभग 222 km दूर कटरा जम्मू की ओर
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