संकलित एवं सम्पादित
डॉ.मधुसूदन व्यास एवं डॉ.कल्पना व्यास
उपनिषद वेद का वह भाग हे जिसमें विशुद्द रीत से अद्यात्मिक चिंतन को प्राथमिकता दी गई हे, और फल सम्बन्धी कर्मो के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया हे |
'उपनिषद' कहलाता है।
वेदों के लिए चार विभाग उनके विवरण अनुसार,
१-'संहिता' ( ईश्वर स्तुति संग्रह ) /२-'ब्राह्मण' ( मन्त्रों के विधि भाग) / /-'आरण्यक'(वानप्रस्थियों के कर्म विधान)/४-'उपनिषद'(मन्त्रों की दार्शनिक व्याख्या)
के रूप में प्रयुक्त किये गए हैं।
विद्वानों ने वेदों के अन्तिम विभाग "उपनिषद" को "वेदान्त" का नाम भी दिया है।
उपनिषद
ब्रह्मज्ञान के ग्रन्थ हैं।
उपनिषदों की रचना शैली गुरु-शिष्य संवाद, विद्वान
ऋषियों से चिंतनशील जिज्ञासुओं के प्रश्नोत्तर, विद्वानों
की पारस्परिक चर्चाओं या वरिष्ठों के उपदेशों के रूप में हैं। कहीं-कहीं रूपकों या
संक्षिप्त आख्यानों द्वारा भी गंभीर विचारों को समझाने की युक्ति अपनाई गई है।
उपनिषदों के कथ्य में अनेक विदुषी महिलाओं की भी प्रभावशील भागीदारी है।
इन108 उपनिषदों में प्रमुख
कौन-कौन से माने जाएँ इस विषय में सामान्य मत यह है, कि आदि शंकराचार्य जी ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी वे ही सबसे प्रमुख हैं। उनके नाम हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. वृहदारण्यक, 11. नृसिंह पर्व तापनी।इनके सिवा शंकराचार्य ने पाँच-छह अन्य उपनिषदों से भी उदाहरण दिए हैं।
कौन-कौन से माने जाएँ इस विषय में सामान्य मत यह है, कि आदि शंकराचार्य जी ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी वे ही सबसे प्रमुख हैं। उनके नाम हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. वृहदारण्यक, 11. नृसिंह पर्व तापनी।इनके सिवा शंकराचार्य ने पाँच-छह अन्य उपनिषदों से भी उदाहरण दिए हैं।
'जिन उपनिषदों पर
शंकराचार्य ने भाष्य किया है वे ही सबसे प्राचीन तथा अत्यंत प्रामाणिक हैं। उपनिषद स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। जिस प्रकार भगवद्गीता महाभारत का एक भाग है
उसी प्रकार उपनिषद् भी वेदों, वेदों की शाखाओं, ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्यकों के विशेष भाग ही हैं।
उपनिषदों के रचियता
ॠषि-मुनियों ने अपनी अनुभुतियों के सत्य से जन-कल्याण की भावना को सर्वोपरि
महत्त्व दिया है। उनका रचना-कौशल अत्यन्त सहज और सरल है। यह देखकर आश्चर्य होता है
कि इन ॠषियों ने कैसे इतने गूढ़ विषय को, इसके विविधापूर्ण तथ्यों को, अत्यन्त थोड़े
शब्दों में तथा एक अत्यन्त सहज और सशक्त भाषा में अभिव्यक्त किया है।
भारतीय दर्शन
की ऐसी कोई धारा नहीं है, जिसका
सार तत्त्व इन उपनिषदों में विद्यमान न हो। सत्य की खोज अथवा ब्रह्म की पहचान इन
उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय है। जन्म और मृत्यु से पहले और बाद में हम कहां थे और
कहां जायेंगे, इस सम्पूर्ण सृष्टि
का नियन्ता कौन है,
यह
चराचर जगत किसकी इच्छा से परिचालित हो रहा है तथा हमारा उसके साथ क्या सम्बन्ध है। इन सभी जिज्ञासाओं
का शमन उपनिषदों के द्वारा ही सम्भव हो सका है।
उपनिषदों के रचनाकाल
के सम्बन्ध में विद्वानों का एक मत नहीं है। कुछ उपनिषदों को वेदों की मूल
संहिताओं का अंश माना गया है। ये सर्वाधिक प्राचीन हैं। भौगोलिक
परिस्थितियों के अनुसार जो
सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी
राजाओं या ॠषियों के नाम और खगोलीय योगों के
विवरण आदि प्राप्त होते हैं। उनके द्वारा उपनिषदों के रचनाकाल की सम्भावना
अभिव्यक्त की जा सकती है, परन्तु
इनसे रचनात्मक का सटीक निरूपण नहीं हो पाता; क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियों में जिन नदियों आदि
के नाम गिनाये जाते हैं, उनके
उद्भव का काल ही निश्चित्त नहीं है। इसी प्रकार राजाओं और ॠषियों के एक-जैसे कितने
ही नाम बार-बार ग्रन्थों में प्रयोग किये जाते हैं। वे कब और किस युग में हुए, इसका सही आकलन ठीक
प्रकार से नहीं हो पाता। जहां तक खगोलीय योगों के वर्णन का प्रश्न है, उसे भी कुछ सीमा तक
ही सुनिश्चित माना जा सकता है।
उपनिषदों का महत्व
उपनिषदों में ॠषियों
ने अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निचोड़ डाला है। इसी कारण विश्व साहित्य में
उपनिषदों का महत्व सर्वोपरि स्वीकार किया गया है।
जीवन के सभी विचार
और चिन्तन बेमानी सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु जीव और परमात्मा के मिलन के लिए किया गया
अध्यात्मिक चिंतन कभी बेमानी नहीं हो सकता। यह वह आलोक है, जो समस्त मानवता के
अज्ञानपूर्ण अन्धकार को दूर करने के लिए ॠषियों द्वारा अवतरित कराया गया है।
इसीलिए उपनिषदों का महत्व, सर्व-कल्याण
का श्रेष्ठतम प्रतीक है।
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डॉ.मधुसूदन व्यास एवं डॉ.कल्पना व्यास
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