लेखन कला - कैसे लिखें नई रचनाएँ।
"कौशल" या कुशलता का होना प्रत्येक कला या बात में सफलता की सीडी कही जा सकती हे। इनमे अधिकांश ऐसे होते हें, जो आजीविका या सम्मान उपार्जन में काम आते हें,या कुछ विनोद/मनोरंजन की पूर्ति के लिए होते हें।
प्रतिभा उभारने का प्रयोजन साधने वाली विधाओं में लेखन और भाषण की कला होती हें।
संगीत भी इसमें शामिल किया जा सकता है।
लेखन कला का एक अलग महत्त्व है । इस कला ने आदिम काल से आज तक अपने महत्त्व को सर्वोच्च बनाये रखा है। उत्तम लेखन व्यक्ति को अजर/अमर कर देता है।वर्तमान में लिखित साहित्य का पहाड़ तो एकत्र हो गया है, पर वे मात्र कूड़े करकट के पहाड़ बन गए हें। रामायण/गीता जेसे समर्थ साहित्य की खोज वर्तमान साहित्य में करने से डर लगता है। की कूड़े करकट के ढेर में 'हाथ डालने से 'सब कुछ' मेला न हो जाये।
वर्तमान में आवश्यकता हे अच्छे लेखन की। यह कैसे किया जाये ?
लेखन की योग्यता विकसित करने के लिए निम् छह नियम अपनाने होंगे।
1- अपने सीमित किन्तु उपयुक्त विषय का चुनाव, और उसमें अपने चिंतन तथा प्रयास का केन्द्रीयकरण।
2-निर्धारित विषयों के प्रमाणिक ग्रंथो का गंभीरता पूर्वक अधिकाधिक अध्ययन।
3- जो पड़ा और ढूंढा हे- उसमें से जितना सारगर्भित हो उसका सुव्यवस्थित रूप में वर्गीकरण- संकलन।
4-संकलन का सही शेली में लेखन,भाषा,लिपि,भाव,व्याकरण,संतुलन,शब्दानुशासन, आदि के आधार पर संचय का नए ढ़ाचे में प्रस्तुतीकरण ।
5-लेख या कृति का पूर्व ढांचा खड़ा करना और उसके हर पक्ष के लिए आवश्यक सामग्री जुटाना। इस जुटाने में अध्ययन,परामर्श,मनन, एवं सूझ-बूझ के साथ उपयुक्त निर्धारण।
6- संचय को "हार" की तरह गूथना ,गुलदस्ते की तरह क्रमबद्ध रूप में संजोना।
इन सभी पक्षों पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता हे एक भी चूका या महत्वहीन समझा तो लेखन सराहने योग्य नहीं बन पायेगा।
लेखन की सु-शेली होना इस बात पर निर्भर है, जिसमें प्रतिपक्ष का विरोध नहीं किया जाकर उसके दुष्परिणामों को चित्रित किया गया हो।
लेखन कला को स्वीकार करने से पूर्व आत्मावलोकन कर अपने अन्दर की उन विशेषताओं को खोजना चाहिए जो उसे शोध का अधिकारी बनती हे।
इस बात को जानने के लिए जिन गुणों की अपेक्षा की जाती हे वे निम्न हो सकते हें।
1- उत्कट आकांक्षा -जो नाम और यश से प्रेरित नहीं हो।
2- एकाग्रता का अभ्यासी -चंचल मन से युक्त व्यक्ति द्वारा लेखन सभव नहीं। नियमित रूप से लिखने की आदत।
3-अध्ययन शीलता - व्यसनात्मक स्वाध्यायी होना।
4-जागरूकता -लेखन में विषय के प्रति सतर्कता रखने वाला,पुनुरावलोकन करते रहने वाला होना चाहिए एसा व्यक्ति ही लेखन के प्रति जागरूक होता है।
5- ज्ञान को पचाने में समर्थ होना ,बुद्धि सामर्थ अनुसार नियत समय सीमा में करने की क्षमता से युक्त 'बड़ा स्पष्ट' या 'टू दी पाइंट ' होना।
6- संवेदनशीलता -कल्पना की नीव पर लेख का महल बना पाने के लिए भाव संवेदनाओ से युक्त अभिव्यक्ति का सामर्थ होना।
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इस साईट पर उपलब्ध लेखों में विचार के लिए लेखक/प्रस्तुतकर्ता स्वयं जिम्मेदार हे| इसका कोई भी प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा हे|सभी समाज जनों से सुझाव/सहायता की अपेक्षा हे|
"कौशल" या कुशलता का होना प्रत्येक कला या बात में सफलता की सीडी कही जा सकती हे। इनमे अधिकांश ऐसे होते हें, जो आजीविका या सम्मान उपार्जन में काम आते हें,या कुछ विनोद/मनोरंजन की पूर्ति के लिए होते हें।
प्रतिभा उभारने का प्रयोजन साधने वाली विधाओं में लेखन और भाषण की कला होती हें।
संगीत भी इसमें शामिल किया जा सकता है।
लेखन कला का एक अलग महत्त्व है । इस कला ने आदिम काल से आज तक अपने महत्त्व को सर्वोच्च बनाये रखा है। उत्तम लेखन व्यक्ति को अजर/अमर कर देता है।वर्तमान में लिखित साहित्य का पहाड़ तो एकत्र हो गया है, पर वे मात्र कूड़े करकट के पहाड़ बन गए हें। रामायण/गीता जेसे समर्थ साहित्य की खोज वर्तमान साहित्य में करने से डर लगता है। की कूड़े करकट के ढेर में 'हाथ डालने से 'सब कुछ' मेला न हो जाये।
वर्तमान में आवश्यकता हे अच्छे लेखन की। यह कैसे किया जाये ?
एक अच्छे लेखन और भाषण में 'तर्क', तथ्य' 'प्रमाण', 'उदाहरण', अनुभव' 'इतिहास' 'परामर्श' 'मंथन'' अदि अनेक आधारों पर अवलंबन करने से ही प्रतिफल मिलता है।
लेखन कला में स्कूली शिक्षा का महत्त्व सिर्फ इतना भर हे की आयु की परिपक्वता और लेखन सामर्थ भर आ जाये।
लेखन कला लेखनी का चमत्कार नहीं उस अध्ययन का प्रतिफल होता हे जो उसके पूर्व किया गया था। अद्ययन ही वह बल हे जिस पर लेखन व्यवसाय पनप रहा है।
पूर्व निर्धारित लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उसके इर्द-गिर्द घुमने का नाम ही शोध है। जिस विषय की गहराई में उतरना होता हे मात्र उसी प्रसंग की पुस्तकें तलाशते हें ,उनमें से उतने ही पृष्ट पड़ते हें, जिनसे आवश्यकता पूरी हो सके। जो लक्ष्य पर ध्यान नहीं रखते वे भटक जाते है। लेखन की योग्यता विकसित करने के लिए निम् छह नियम अपनाने होंगे।
1- अपने सीमित किन्तु उपयुक्त विषय का चुनाव, और उसमें अपने चिंतन तथा प्रयास का केन्द्रीयकरण।
2-निर्धारित विषयों के प्रमाणिक ग्रंथो का गंभीरता पूर्वक अधिकाधिक अध्ययन।
3- जो पड़ा और ढूंढा हे- उसमें से जितना सारगर्भित हो उसका सुव्यवस्थित रूप में वर्गीकरण- संकलन।
4-संकलन का सही शेली में लेखन,भाषा,लिपि,भाव,व्याकरण,संतुलन,शब्दानुशासन, आदि के आधार पर संचय का नए ढ़ाचे में प्रस्तुतीकरण ।
5-लेख या कृति का पूर्व ढांचा खड़ा करना और उसके हर पक्ष के लिए आवश्यक सामग्री जुटाना। इस जुटाने में अध्ययन,परामर्श,मनन, एवं सूझ-बूझ के साथ उपयुक्त निर्धारण।
6- संचय को "हार" की तरह गूथना ,गुलदस्ते की तरह क्रमबद्ध रूप में संजोना।
इन सभी पक्षों पर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता हे एक भी चूका या महत्वहीन समझा तो लेखन सराहने योग्य नहीं बन पायेगा।
नव लेखक को किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए की मात्र अपनी सूझ-बूझ से मोलिक लिखा जा सकता है।
मोलिक लेखन के लिए सारे जीवन के अद्ययन, मनन, चिंतन, और अनुभव, की आवश्यकता होती है।
आपके लेख या रचना में आपका चिंतन,निष्कर्ष , निर्धारण, मोलिक हो सकता हे निष्पक्ष सूझ -बूझ का परिचय ही आपकी मोलिकता है। भूतकालीन निर्धारणों पर जिस प्रकार से प्रकाश डालना हो उस विषयमें अधिक तर्क,तथ्य,प्रमाण,उदाहरण, देकर अपने प्रतिपादन को अधिक वजनदार बनाया जाना अपने आप में मोलिकता होती है।
किसी रचना में शब्दों को गूंथकर एक प्रवाह पैदा करना, जिसमें संरचना स्वमेव ही बड़ती चली जावे, और जिसमें भावनाओ की पूर्ण अभिव्यक्ति हो एक नव और मोलिक रचना होगी।
तथ्य एवं घटनाओं की भावना पूर्ण अभिव्यक्ति से ही पाठक को लेखन का आनद प्राप्त होता हे। पाठक का यही आनंद लेखन को सफल करता है।लेखन की सु-शेली होना इस बात पर निर्भर है, जिसमें प्रतिपक्ष का विरोध नहीं किया जाकर उसके दुष्परिणामों को चित्रित किया गया हो।
लेखन कला को स्वीकार करने से पूर्व आत्मावलोकन कर अपने अन्दर की उन विशेषताओं को खोजना चाहिए जो उसे शोध का अधिकारी बनती हे।
इस बात को जानने के लिए जिन गुणों की अपेक्षा की जाती हे वे निम्न हो सकते हें।
1- उत्कट आकांक्षा -जो नाम और यश से प्रेरित नहीं हो।
2- एकाग्रता का अभ्यासी -चंचल मन से युक्त व्यक्ति द्वारा लेखन सभव नहीं। नियमित रूप से लिखने की आदत।
3-अध्ययन शीलता - व्यसनात्मक स्वाध्यायी होना।
4-जागरूकता -लेखन में विषय के प्रति सतर्कता रखने वाला,पुनुरावलोकन करते रहने वाला होना चाहिए एसा व्यक्ति ही लेखन के प्रति जागरूक होता है।
5- ज्ञान को पचाने में समर्थ होना ,बुद्धि सामर्थ अनुसार नियत समय सीमा में करने की क्षमता से युक्त 'बड़ा स्पष्ट' या 'टू दी पाइंट ' होना।
6- संवेदनशीलता -कल्पना की नीव पर लेख का महल बना पाने के लिए भाव संवेदनाओ से युक्त अभिव्यक्ति का सामर्थ होना।
हर नया लेखन एक शोध की तरह ही होता हे विज्ञानं सम्मत शोध वह हे जिसमें शोधकर्ता सदेव निष्पक्ष तटस्थता की नीति निर्धारित कर पूर्वाग्रहों से मुक्त हो कर नई रचना प्रस्तुत करता है।
यह लेख आचार्य श्री राम शर्मा जी के उद्बोधनो एवं लेखन से प्रभवित है।
डॉ मधु सूदन व्यास।
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इस साईट पर उपलब्ध लेखों में विचार के लिए लेखक/प्रस्तुतकर्ता स्वयं जिम्मेदार हे| इसका कोई भी प्रकाशन समाज हित में किया जा रहा हे|सभी समाज जनों से सुझाव/सहायता की अपेक्षा हे|