यज्ञोपवित शब्द 'यज्ञ' और 'उपवीत' इन दो शब्दों से बना है जिसका अर्थ है यज्ञ को प्राप्त करने वाला अर्थात जिसको धारण करने से व्यक्ति को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।यज्ञोपवित धारण किए बिना किसी को वेदपाठ या गायत्री जप का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। उपनयन उपर्युक्त संस्कार का पर्यायवाची शब्द है,जिसका अर्थ होता है ऐसा संस्कार जिसके व्दारा बालक को गुरू के समीप ले जाया जाता है। यज्ञोपवित को ही ब्रहमसूत्र कहते है क्योंकि इस सूत्र के पहनने से व्यक्ति ब्रहम के प्रति समर्पित हो जाता है। यह बल,आयु और तेज को देने वाला सूत्र है। यज्ञोपवित को व्रतबन्ध भी कहा जाता है क्योंकि इसके पहनने से व्यक्ति अनेक प्रकार के व्रत नियमों में बंध जाता है व द्रढप्रतिज्ञ हो जाता है। इसे मौंजीबन्धन संस्कार भी कहते हैं क्योंकि उपनयन संस्कार में मूंजमेखला ब्रहमचारी के कमर पर बांधी जाती है।
यज्ञोपवित स्वदेशी सूत्र से शास्त्रीय विधि व्दारा हाथ से बनाया जाय यदि ऐसा न कर सकें तो ब्राहमण कन्या,सौभाग्यवती ब्राहमण स्त्री व्दारा कराते गये सूत्र से ही यज्ञोनवित को बनाया जाय। ब्रहमचारी तीन धागे वाली जनेउ पहने व विवाहित पुरूष छह धागे वाली जनेउ पहने,यज्ञोनवित हमेशा दाये कन्धे प यज्ञोपवित टूट जाने पर,घर में किसी की जन्म या म्रत्यू हो जाने वर ,श्रावणी कर्म,सूर्य चन्द्र ग्रहण के बाद,क्षौरकर्म के पश्चात स्नानपूर्वक विधि के साथ यज्ञोपवित अवश्य बदलना चाहिए ।
यज्ञोपवित में तीन धागे क्यो . त्रिगुणात्मक शक्ति से युक्त यज्ञोपवित वेदत्रयी ऋग,यजु,साम की रक्षा करती है । यह तीनों लोकों प्रत्वी,अन्तरिक्ष घ्यौ की प्रतिक है। सनातन धर्म में तीन प्रधान देवता हैं ,ब्रहमा,विष्णु,महेश। यज्ञोपवित ब्राहमण,क्षत्रिय, वैश्य में सत्व रज तक तीनों गुणों की सगुणात्मक व्रध्दि करते है। इसके तीन तन्तु बल,वीर्य और ओज को बढाने वाले है। इन धार्मिक व्याख्याओं के अतिरिक्त लौकिक व्यवहार में यज्ञोपवित के तीन सूत्र व्यक्ति को तीन प्रकार के कर्तव्य के प्रति बांधते हैं। पहला तन्तु स्वयं के प्रति पूर्णरूप से ब्रहमचारी रहना,रोज गायत्री जपना ,गुरू की सेवा करना,संयमित जीवन जीना, खुद भिक्षा मांगना एवं गुरू ग्रह का भी पालन पोषण करना । दूसरा तन्तु. माता के प्रति समर्पण एवं कर्त्तव्य पालन का स्मरण कराता है। तीसरा तन्तु पिता के प्रति समर्पण एवं कर्त्तव्य निष्ठा का बोधक है।
विवाहित व्यक्ति को छह धागे वाला यज्ञोपवित क्यों . ब्रहमचारी का विवाह हो जाने पर उसके कर्तव्यों की सीमा त्रिगुणात्मक रूप से और बढ जाती है। इससे1. पहला तन्तु पत्नी का है । विवाह के पश्चात पत्नी की सम्पूर्ण मान मर्यादा आजीविका व रक्षा का दायित्व ग्रहस्थ व्यक्ति का हो जाता है। व्दितीय तन्तु. सासू के प्रति कर्तव्य पालन है। तथा त्रतीय तन्तु श्वसुर के प्रति निष्ठा एवं कर्तव्य पालन का स्मरण कराता है। यह यज्ञोपवित के छह धागों की लौकिक गवेषणा है। विवाह के पश्चात अनेक प्रकार के श्रौत स्मार्त धार्मिक क्रत्यों का अधिकारी हो जाता है 1 गुहय सूत्रों के अनुसार ये कर्म सपत्निक किये जाते है अत इन धर्मानुष्ठानों में दो यज्ञोपवित चाहिए।
यज्ञोपवित कन्धे के उपर से आता है और नाभि का स्पर्श करता हुआ कटि तक ही पहुंचे न इससे नीचे और न इससे उपर । इसकी मोटाई सरसों की फली की तरह होना चाहिए।
ब्रहम ग्रन्थि के बारे में कहा गया है कि संसार में प्राय यह परिपाटी प्रसिध्द है कि जब तक हम किसी वस्तु को विशेष रूप से स्मरण रखना चाहते हैु तो उसके लिए कपडे में एक गांठ लगा लिया करते हैं । गांठ बांध लेना ऐसे ही अर्थ में एक प्रसिध्द लोकोक्ति बन गई है । फलत ब्रहमप्राप्ति रूप चरम लक्ष की स्मारक की ब्रहमसुचक यह गन्थि ब्रहमग्रन्थि कहलाती है ब्रहमग्रन्थि के उपर अपने गोत्र प्रवरादि के भेद से 1,3,5, गांठ लगाने की कुल परम्पराएं होती है1
लघुशंका के समय जनेउ दायें कान पर लगाये जाने का धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व है। ब्राहमण के दाहिने कान में देवताओं का निवास है अत पवित्रता के महान केन्द्र पर जनेउ रखने का विधान शास्त्रीय मर्यादाओं के अनुकूल है ।
आयुर्वेद के अनुसार 'लोहितिका' विशेष नाडी दाहिने कान से होकर मनुष्य के मल मूत्र व्दार तक पहुंचती है। यदि दक्षिण कान की इस नाडी को थोडा सा हाथ से दबा दिया जावे तो व्यक्ति का मूत्र व्दार स्वत ही खुल जाता है । पाठशालाओं में गुरूजी के व्दारा बच्चों के कान दबाने पर यह हरकत प्राय देखी जाती है। इस नाडी का अंडकोश से भी सीधा संबंध है। हरणिया नामक बीमारी की रोकथाम के लिए आज भी डाक्टर लोग इस कान को ही नाडी की जगह छेद करते हैं । अत वैज्ञानिक रीति से यह प्रमाणित है कि इस कान को जनेउ व्दारा वेष्ठित करने से व्यक्ति को मूत्र एकदम साफ व सरलता के साथ आखरी बूंद तक उतर जाता है। तथा व्यक्ति को मूत्र संबंधी रोग नहीं होते ।
दोनों कानों पर यज्ञोपवित के वेष्ठन से नाडियं जाग्रत होकर संचेष्ट हो जाती है । इस कारण से ऋषि लोग सर्वा्ग रूप से वीर्य का संरक्षण करते थे और यज्ञोपवित की पवित्रता भी बनी रहती थी । दोनों कानों पर यज्ञोपवीत के वेष्ठन से व्यक्ति मधुमेह ,प्रमेह,डाइबिटीज व मल मूत्र दोषजन्य भयंकर रोगों से बच सकता है।
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