शब्द एक शक्ति है जिसमें उर्जा है और वह ब्रहम की भांति अमर है । इसलिए शब्द को ब्रहम भी कहा गया है। मुह से निकला हुआ कोई शब्द कभी मरता नहीं है। वह अनंतकाल तक वातावरण में गुंजायमान रहता है। आचार्य पातंजलि के शब्दों में एक शब्द भी अपनी समस्त संभावनाओं एवं अपने समस्त प्रयोगों के साथ ठीक ठीक समझकर प्रयोग किया जाय तो वह स्वर्गलोक में भी मनचारी पूरी कर देता है।
शब्द साधना का अर्थ है स्रष्टि की प्रक्रिया का साक्षात्कार । वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म स्तर पर नाद को ही स्रष्टि का बीज माना है । ज्ञान का प्रमुख साधन शब्द ही है क्योंकि शब्द के बिना स्थूल,सूक्ष्म, किसी भी वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता । शब्द की शक्ति उसके अर्थ में निहित होती है और इसके प्रभाव का संकेत निष्पक्ष व्यक्ति ही कर सकता है। शब्द दो प्रकार के होते हैं 1' व्युत्पन्न 2' अव्युत्पन्न । व्युत्पन्न शब्द प्रक्रति प्रत्यय व्दारा अपने अर्थ को पुष्ट करते हैं जबकि अव्युत्पन्न शब्द प्रक्रति प्रलख का सहयोग लिए बिना ही अपने समुदाय शक्ति को अभिव्यक्त करते हैं जैसे मणि,नुपुर,झंकार,कोलाहल आदि । इन शब्दों में स्वयं में अर्थ प्रकाश की शक्ति नहीं है।
पण्डित पदमविभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है कि '' भारतवर्ष में सरस्वती नदी के तअ पर विश्व में पहली बार शब्द प्रगट हुआ और इाका माध्यम बने वैदिक ऋषि। ब्रहम ने स्वयं को सत्य में अभिव्यक्त किया । ब्रहम शब्द बना और शब्द ब्रहम बन गया, अभिव्यक्ति बोली बनी और इस प्रकार भाषा का जन्म हुआ जिसे संस्क्रत नाम दिया गया क्योंकि यह सुसंस्कारित,ससंपादित,और सुविचारित भाषा थी । सस्क्रत की अक्षय उर्जा से दुनिया की तमाम बोली और भाषाओं का विकास हुआ। शब्द उसे कहते हैं जिसके बोलने में कोई अर्थ हो ,जिसका कोई उददेश्य या लक्ष हो जो सुनने में कर्णप्रिय हों । वेदों से प्रमाणित है कि इनसे पहले कहीं भी भाषा या शब्द नहीं बने1 सरस्वती नदी हमारे चिंतन मनन,धर्म,कर्म ,अध्यात्म ,लेखन,पठन पाठन शिक्षा दीक्षा सभी के केन्द्र में रही । उसी के तट पर ऋषियों ने अपने आश्रम बनाकर ज्ञान का अक्षय भण्डान प्राप्त किया और वही आज हमारी विरासत है । मनुष्य को ज्ञान की ज्योति सूर्य,चन्द्र,अग्नि आदि से प्राप्त होती है परन्तु जब ज्योति के ये सभी स्त्रोत निर्जीव या अद्रश्य हो जाते हैं तो एक मात्र ज्ञान प्राप्त करने का साधन वाणी रहती है। वाणी अर्थात शब्द । राजा जनक के इस संदेह पर की जब वाणी भी मूक हो जाय तो मनुष्य क्या करेगा । महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि ज्याति का अन्तिम स्त्रोत ब्रहम है जो अक्षर,सत्य और स्थिर है । वह ब्रहम हमारे ह्रदय में विध्यमान है जो हमारे मुंह से शब्द के रूप में प्रतिभासित होता है1 अंतर्रात्मा का ब्रहम ही शब्द बनकर प्रेरणा देता है ,मार्गदर्शन करता है।
शब्दों की शक्ति उनके उच्चारण से प्रगट होती है । तब तक शब्द मौन है तब तक वे निर्जीव,निरर्थक और शक्तिहीन रहते है। किसी के मुख से जैसे ही उनका उच्चारण होता है उनमें एक उर्जा उत्पन्न हो जाती है जो वातावरण में अपनी तरंगों को उछाल कर सम्पूर्ण परिवेश को उर्जा प्रदान करता है। यदि किसी शब्द का उच्चारण मंद या मघ्यम स्वर में और उसी शब्द का उच्चारण उच्च एवं तीव्र शब्द में किया जाय तो दोनों के उर्जा ,प्रभाव और वातावरण को आंदोलित करने की क्षमता भिन्न भिन्न हो जाती है। प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख है कि जानने के लिए तो चिंतन मनन,पठन पठान,अध्ययन अभ्यास कई विधियां है परन्तु दूसरों को जनाने के लिए एक मात्र विधि वाचिक है । बोलकर,समझाकर ,प्रमाण देकर ,अभ्यास कराकर ही किसी को बताया जा सकता है । स्वराघात के स्तर और उससे उत्पन्न उर्जा तथा उर्जा से प्रादुर्भूत प्रभाव को ऋषियों अत्यन्त सूक्ष्म ढंग से जान लिया था । यही कारण है कि यज्ञों में मंत्रों के उच्चारण के विज्ञान का प्रयोग किया जाता था। आज के विज्ञान ने यह सिध्द कर दिया है कि निम्नस्तर की तरंगे मानव मन में व्यग्रता उत्पन्न करती है पुरन्तु उच्च स्तर की तरंगे पौष्टिक होती है । प्रत्येक मानव शरीर में भी एक यंत्र है जिसमें प्रतिक्षण उर्जा एवं तरंगे उत्पन्न होती रहती है1 हमारा मस्तिष्क ीाी बाहय या आंतरिक तरंगों से प्रभावित होकर प्रतिक्रिया स्वरूप संवेदना प्रगट करता रहता है। महर्षि व्यास ने कहा है कि सम्पूर्ण प्राणियों में मानव श्रेष्ठतम है । जीव जंतु भूकम्प आंधी तूफान पूर्ण सूर्यग्रहण जैसी घ्ाअनाओं का अनुमान पूर्व में ही लगाकर अपनी सुरक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित कर लेते हैं क्योकि उनमें निम्न स्तर की तरंगो को पकडने की शक्ति होती है परन्तु मानव शरीर श्रेष्ठ होने के कारण केवल उच्च तरंगों को ही पकड पाता है। इसीलिए मत्रों के शोध से मंत्र विज्ञान के अध्ययन की प्रेरणा मिली है। प्राचीन काल से ही पूजा पाठ,उपासना,यज्ञ हवन,विवाह या अन्य शुभकार्य मंगलाचरण जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर एकल अथवा सामूहिक मंत्रोच्चार करने की प्रथा है।
शब्दों की शक्ति को एक रूसी वैज्ञानिक ने भी स्वीकार किया है1 ईसाई धर्म में शब्द से ही ब्रहमाण्ड की रचना मानी गई है । हमारे यहां भी नाद को स्रष्टि का बीज माना गया है।
मंत्रो में शब्दों का चयन अत्यन्त दक्षता,सावधानी ,रचना और अवसर के अनुकूल किया गया है। प्रत्येक शब्द को नापतौल कर उससे उससे उत्पन्न प्रभाव को जांचने परखने के पश्चात किसी मंत्र में स्थापित किया गया है। इसलिए वैदिक ऋषियों को मंत्र रचियता न कहकर मंत्र द्रष्ट कहा गया है। इससे भी प्रतीत होता है कि मंत्रोच्चारण ,मंत्र साधना और मंत्रों के प्रभाव के विज्ञान की समुचित जानकारी वैदिक ऋषियों को थी 1 मंत्रो की प्रभावोत्पादका है कि उनके शब्द कान में पडते ही एक विध्युत धारा प्रवाहित होती है जो सीधे मस्तिष्क में पहुंच कर शब्दोच्चारण से उत्पन्न विध्युत धारा की चुम्बकीय तरंगों से स्नायुमण्डल को प्रभावित करती है 1 शब्दों के प्रभाव से ही काम,क्रोध,भय व्यग्रता आदि उत्पन्न होते हैं । शब्दों के स्वर स्तर से ही ह्रदय की धडकन घटती बढती है 1 रक्तचाप प्रभावित होता है। शब्द विज्ञान को ही धातु विज्ञान में परिवर्तित करके मूर्तियों का निर्माण किया गया है । कई ऐसी धातुऐं है जिनसे बनी मूर्तियों के समक्ष मंत्रोच्चारण ,पाठ या प्रार्थना करने से उसकी प्रतिध्वनि मस्तिष्क में जाती है और वह तरंग मस्तिष्क में प्रवाह उत्पन्न करके संवेदनशी बनाती है । संस्क्रत मंत्रो के अदभूत प्रभाव को विदेशियों ने भी स्वीकार किया है । यह स्वयंसिध्द है कि शब्दों के प्रभाव के कारण मंत्रो में अनुपम शक्ति अनुस्यूत हो जाती है 1 यह शक्ति मंत्रोच्चारण के समय मनुष्य पर प्रभाव डालती है। चूंकि शब्द बहम है इसलिए शब्द को दूषित करना महापाप माना गया है। शब्दों में दोष उसके अशुध्द उच्चारण,अशुश्द वर्तनी,अशुध्द प्रयोग और अनुपयुक्त अवसर से उत्पन्न होते हैं ।
संकलित
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