अकेले न जिओ ;कर्म का अम्रत पीओ ।


    धरा पर सांस ले रहा प्रत्‍येक प्राणी आक्रति एवं प्रक्रति में भिन्‍नता रखते हुए भी आत्‍मा के व्‍दारा एक सूत्र में मोतीयों की माला की तरह सुगठित है। हर प्राणी एक दूसरे के अस्तित्‍व से बंधा हो उसका एक क्षण भी अकेले जीना असंभव है। हमें अपनी विचारधारा को विकसित करते हुवे संकल्‍प करना होगा कि दूसरों की उपलब्धि का उपयोग किये बिना हम एक कदम भी आगे नहीं बढ सकते हैं। कर्म के प्रति निष्‍ठा न हो तो उसे उपलब्धियों के अनमोल खजाने की प्राप्ति नहीं हो सकती है। कर्म में भक्ति; मस्ति और श्रध्‍दा का सामन्‍जस्‍य होना आवश्‍यक है। जैसा कि रैदास को जूते सीलने और गोरा कुम्‍हार को मटके बनाने में आनन्‍द आता था ।
    कर्म के साथ समर्पण जुडा हो तो वह सुखानुभूति देता है । यदि मन में अहंकार का बीज अपनी जगह बना ले तो कर्म का मूल्‍य और स्‍तर दोनों गिर जाते हैं । कर्म बडा हो या छोटा अहंकार रहित होकर समर्पित भाव से करना चाहिए । भक्‍त पुंडलिक को माता पिता की सेवा में इतना सुख मिलता था कि उन्‍होने भगवान विठठल को भी प्रतीक्षा करने के लिए कह दिया । कर्म में ऐसा ही भाव होना चाहिए । कर्म के साथ यदि अपने पराये की भावना का उदय हो जाता है तो उसमें स्‍वार्थी तत्‍व का समावेश होकर सदकर्म का भाव ही समाप्‍त हो जाता है ।
    कर्म के साथ अपनी इच्‍छाओं को भी नियन्त्रित करना होगा क्‍योंकि इच्‍छाऐं अनन्‍त होती है । हमारे व्‍दारा किये जाने वाले समस्‍त कर्मो में सहयोग;सामंजस्‍य और सहकार का भाव मिश्रित होगा तो सफलता हमें हर कदम पर प्राप्‍त होती रहेगी ।
   मानव अपनी जीवन संपदा का उपयोग अच्‍छे कर्मो के लिए करेगा तो वह ईश्‍वर व्‍दारा निर्मित इस विश्‍ववाटिका को सुन्‍दर सुव्‍यवस्थित सरल समुन्‍नत बनाने में पूर्ण सहयोगी होगा। अच्‍छाई और बुराई की दोनों गेंद आपके हाथों में है और इनका उपयोग आपके बुध्दिकौशल से जुडा हुआ है और जीवन की प्रतिष्‍ठा अप्रतिष्‍ठा आपके पास ही सुरक्षित है। इसके लिए अन्‍य कोई जिम्‍मेदार नहीं है । इसलिऐ अपनत्‍व के भाव से सबके साथ जीओ और अच्‍छे कर्मो का अम्रत पीओ । 
उद्धव जोशी , उज्‍जैन




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