स्वरूचि भोज की अंतव्यथा।

  स्वरूचि भोज की अंतव्यथा - भोजन का अपव्यय रोकना होगा।
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    मेरा जन्म बफे पार्टी के नाम से पाश्चात्य सभ्यता में हुआ। जहां थोडी सी जगह में, कम लोगों को, अच्छी सेवा, सुन्दर सजावट और मधुर स्वाद के साथ मैं अपनी सेवा देता आ रहा था। पश्चिम के लोग तो अपने हाथों से खाना लेकर खाना पसन्द करते हैं! वहां एक दूसरे को परोसने की संस्कृति कभी पनपी ही नहीं!  मंहगे सूट, मंहगे शुज तथा खडे खडे ही खाने की आदत, ने मुझे चलन में ला दिया। एक देश में दूसरे देश के निवासीयों का जब से आवागमन शुरू हुआ तबसे हर देश की संस्कृति और संस्कार दूसरे देशों में अपने पैर जमाने लग गये ! मैं कब हिन्दुस्तान की सरजमी पर प्रगट हो गया, और प्रचलन में आ गया इसका मुझे पता ही नहीं चला! भारत की सरजमी पर आकर मैं गौरवान्वित तो हूं, क्योंकि यहां जो संस्कृति, संस्कार, प्रेम और परिवार है, वैसा अन्य किसी देश में मुझे देखने को नहीं मिला। यहां आकर मैं स्वयं को अकेला महसूस कर रहा हूं, क्योंकि मेरे अन्य सहोदर जो भारत वासियों को पत्तलों पर प्रेम भाव के साथ भोजन कराते थे, मेरे आगमन से धीरे धीरे विलुप्त होने लगे।
    यहां मेरा स्वरूप विकृत हो गया। यहां के लोगों ने मेरी चाक चौबन्द कार्य प्रणाली को समझा ही नहीं, और आंख मूंद कर मेरा उपयोग करने में लग गये! भारत की भूमि पर आकर तो मैं अपना मूलनाम ही भूल गया और कई नामों से जाना जाने लगा! जैसे सांध्य भोज, व्यंजनों की बगिया, स्वरूचि भोज, खडी खो और न जाने क्या क्या! इन नामों से जुड कर तो मेरी बडी दुर्गति हो गई! जो लोग सभ्यता से परिचित हैं, वे तो प्लेट में थोडा थोडा भोजन लेकर एक कोने में खडे होकर स्वाद का आनन्द उठाते हैं, किन्तु हमारे देश के वे लोग जिन्हे मेरे कायदे कानून मालूम नहीं है, उनके साथ वृध्द, बालक और महिलाऐं जो सदैव पत्तल पर भोजन करते रहे हैं, तथा मेजबान और मेहमान के दिलों में उतरते रहे हैं, अब प्लेट में इतना कुछ भर कर ले जाते हैं कि मुझे स्वयं शरम महसूस होने लगती है, और इसके बाद मेरी आलोचना भी करते है। वे भोजन का पूरा उपयोग भी नहीं कर मुझे झुठन के रूप में वेस्ट बाक्स में उडेल देते हैं! कुछ तो टेबल से इस तरह चिपक कर खडे हो जाते हैं, जैसे उनकी ही बपौती हो, वे दूसरों को आने का अवसर ही नहीं देते हैं। प्लास्टिक के यूज एण्ड थ्रो के आयटम से पूरा मैदान पट जाता है! टेबल पर आने हेतु आगे वाले को पीछे वाला खो करता है। धक्का मुक्की के कारण वह स्थान जैसे युध्द का मैदान बन जाता है! कई के तो कपडे भी खराब हो जाते है। अब तो यहां बैठक कर भोजन कराने की व्यवस्था केवल मृत्यु भोज में ही रह गई है, बाकि आयोजनों में पाश्चात्य संस्कृति हावी हो चुकी है। बिना सोचे समझे अनेक स्टाल ,बहुतायत संख्या में मेहमान और छोटा सा स्थान मेरी व्यवस्था को विक्रत करने में साझेदार है ।
    वैसे तो अब मैं भारत की आत्मा में समा ही गया हूँ, तो मेरा अपना कर्तव्य बनता है, कि मैं अपने कायदे कानून आपको बतला दू, ताकि आजकल स्वरूचि भोज में भोजन का जो अपव्यय हो रहा वह होने से बच जाये और यह बचा हुआ भोजन गरीब लोगों के मुह का कौर बन जाय तथा मेजबान भी आर्थिक बोझ से बच जाय । मुझे स्वयं इस बात का दुख है, कि लोग इस बात को समझ ही नहीं रहे है, कि जो भोजन वे कर रहे हैं वह कितनी और कितनों की मेहनत से तैयार होकर आपके मुंह का कौर बन रहा है! 
    वैसे तो मैं कम लोगों को अच्छी व्यवस्था दे सकता हूं, किन्तु भारतीय संस्कृति में यह संभव ही नहीं है, यहां तो आपस में एक दूसरे के प्रति इतना प्रेमभाव है, कि जिसके यहां भी आयोजन हो वे हजारों की तादाद में मेहमानों को न्योता देकर बुलाकर उनके लिए स्वरूचि भोज की ही व्यवस्था करते हैं। आज कल पत्तल का भोजन कराने वालों की बहुत कमी होने से मेरी उपयोगिता बहुत अधिक बढ गई है।  
    मैं हर स्टाल पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता हूं।  ताकि सरलता से सबको भोजन प्राप्त हो सके! आप जितना चाहें ले और बार बार आकर लें ताकि स्वरूचि को कायम रखा जा सके। आपका सूट खराब न हो, आपको जूते नहीं उतारना पडे! जबकि बैठ कर खाने में सूट पर सल और जूते चोरी न हो जाय इसके लिए खाने से हट कर पूरा ध्यान जूतों की तरफ लगाना पडता है! पर मैं महिलाओं, बुजुर्गो एवं छोटे बच्चों के लिए अनफिट हूं। खडी खो में हर आदमी यही सोचता है कि एक बार ले लो फिर भीड बढ जाने पर असुविधा का ही सामना करना पडेगा और यही कारण अन्न के अपव्यय का प्रमुख है! अगर मेरा उपयोग सही ढंग से किया जावे तो मैं सभी वर्ग के सदस्यों को सन्तुष्टी दे सकता हूं, पर वह केवल भोजन की । जिन्होने पत्तल पर जीवन भर जीमा है, वे अवश्य कहते हैं कि खडे खडे खाने में सन्तुष्टी नहीं होती और वह भी जूते पहन कर। बात तो उनकी सही है किन्तु इससे बदतर स्थिति बैठ कर खाने में हो रही है ! बैठ कर खाना इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा जितने जूते और चप्पल ! बैठ कर खाने में समय लगने के कारण जैसे ही पक्ति उठने वाली होती है लोग पीछे खो करने के लिए खडे हो जाते है और वह भी जूते चप्पल पहन कर ! फिर उन्ही हाथो उतार कर पीछे या अपने नीचे रख कर बिना हाथ धोये खाना प्रारम्भ कर देते है ! यदि यही स्थिति बैठक के खाने में है तो इससे तो मैं लाख गुना अच्छा हूं।
   वैसे तो दोनों प्रकार के भोजन में लाभ और हानि शामिल है! यह स्वयं हमारे उपर निर्भर है, की हम आलोचना करने के बजाय व्यवस्था को दुरूस्त करने में सहयोग करें! मेजबान तो प्रेम से बुलाकर भोजन कराता है ! व्यवस्था, अव्यवस्था हमारे व्दारा ही निर्मित होती है। आइये जब समय ही स्वरूचि भोज का है, तो हमें स्वत: भोजन का अपव्यय रोकना होगा तथा बच्चे, बुजुर्ग और महिलाओं को समझाईश देकर उनका सहयोग करेंगे, तभी हम भोजन का अपव्यय रोक सकेगें ।
प्रेषक
उद्धव जोशी , उज्जैन 
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