‘ नो उल्लू बनाविंग ‘‘
ऋग्वेद में विवाह को यज्ञ माना जाकर उसका प्रधान कार्य संतानोत्पति माना गया है। पुरूष को बीज और नारी को भूमि मान कर इससे अच्छी मानव नस्ल के विकास का मार्ग माना गया है। धीरे धीरे सामाजिक द्रष्टिकोण में नारी के प्रति असाधारण परिवर्तन देखने में आया है। पुरूष की अपेक्षा स्त्री का जन्म कम उत्साह का कारण बनने लगा ! बेटी बोझ समझी जाने लगी। भौतिक सम्पन्नता, उच्च शिक्षा और वैज्ञानिक प्रगति के इस दौर में बेटी को जन्म देना भार स्वरूप और बेटे को जन्म देना खुशी को आमन्त्रण देना माना जा रहा है। बेटी बेटा एक समान, बेटी नही पाओगे तो बहू कहां से लाओगे, बहू को बेटी समान मानों, बेटा कुल का दीपक है, बेटा वंश की वृध्दि करने वाला, जल देने वाला, संपत्ति का सुरक्षा गार्ड जैसे हजारों स्लोगन मानवीय चेतना को जाग्रत करने में लगे हुए है, किन्तु व्यवहार में सब इसके विपरीत ही होने के साथ कथनी और करनी में बडा अन्तर दिखाई दे रहा है। शाब्दिक संपत्ति के जरिये हम बेटा/बेटी दोनों को उल्लू बना रहे हैं । बेटा /बेटी भी यह सब सुन सुन कर कहने लगे हैं कि हमें ‘‘ नो उल्लू बनाविंग ‘‘।
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आज कल बडे जोर शोर से धूम मचा रहा है एक स्लोगन ‘‘ नो उल्लू बनाविंग‘‘ क्यों कि हम सब एक दूसरे को कहीं न कहीं उल्लू बनने/बनाने में लगे है। इस विज्ञानमय जगत में हर आदमी तत्काल हाजिर जवाब देकर कह देता है कि ‘‘नो उल्लू बनाविंग‘‘।
बेटी जब गर्भ में रहते हुए माँ बाप की चर्चा सुनती है तो, पीडा से बोझिल होे जाती है। वे आपसी चर्चा में कहते है, कि ‘‘बेटी को पराया धन माना गया है, तो हमें पराये धन की कभी इच्छा नहीं रखना चाहिए।‘‘ बेटी को अच्छे संस्कार देना, बचपन से यौवन तक उसका पालन पोषण, विवाह के लिए घर वर , और धन की चिन्ता, उच्च शिक्षा देना, विवाह के बाद पिता के नाम के बजाय पति का नाम जुड जाना ‘‘ जैसे कई प्रश्न उभर कर आते है, जिनका सार यही निकाला जाता है, कि सारी मेहनत हम करें और लाभ दूसरा परिवार ले जाय। यह उचित नहीं है। मैदान में मूंछ मरोडने वाले पुरूष भी महिलाओं की हां में हां मिलाने लगते हैं। इन सब बातों को सुनकर बेटी भी मां बाप को आगाह कर देती है कि ‘‘ नो उल्लू बनाविंग‘‘। कहती है मां मुझे आपकी गोदी में किलकारी तो भरने दो , आपकी चिन्ताहरण जन्त्री मैं ही रहूंगी। मैं आपकी बेटी जिसे आप जन्म देने में कतरा रहे है, क्योंकि पराया धन, अच्छे संस्कार, उच्च शिक्षा, विवाह आदि के बारे में आपकी जो चिन्ता है, वह बेबुनियाद है। बहू बन कर दूसरे परिवार में जाउंगी, तब मैं आपका ही नाम रोशन करूंगी। जब मैं अपने पिया के परिवार को खुश रखूंगी तो सबसे पहले आप लोगों के नाम की मिसाल दी जावेगी। इसके उलट आपका जो बेटा है, उसके लिए दूसरे परिवार से किसी की बेटी को बहू बना कर लाओगे क्या, लाना ही पडेगा, तो वही बेटी आपकी बहू बन कर मेरे व्दारा हो रहे नुकसान की भरपाई अवश्य करेगी। तब आपको लगेगा कि बेटे से बेटी अच्छी क्योंकि क्रिया की प्रतिक्रिया तत्काल होती है, याने इस हाथ दे और उस हाथ ले। बेटी कभी भार नहीं होती है, बल्कि आपके मन पर जो भार चढा उसको हलका कर देती है। दामाद भी आपको लास में नहीं प्राफिट में रखेगा इस प्रकार बेटी के पैदा होने पर तो आप 100 प्रतिशत लाभ में ही रहेगेें।
अब हम बेटे के आने की खुशी और गम को देखें तो खुशी इसलिए मनाई जाती है, कि वह ‘‘वंश वृध्दि‘‘ करेगा, बुढापे की लाठी, कुल का दीपक होगा। बडा होने तक चाहे वह बाप की कमाई पर गुलछर्रे उडावे, बिगड जावे तो भी ‘‘बच्चा है समझ जायगा‘‘ नामक ताकतवर इन्जेक्शन लगा कर उसके होंसलों को बुलन्द कर दिया जाता है। ऐसे कुल दीपक को बुझा कर अंधेरा करने की हिम्मत किसी में भी नहीं है। वह बाप की संपत्ति का रक्षक होकर संपत्ति को सुरक्षित रखता है। इस प्रकार सारी जिंदगी यदि बेटा आशा का दीपक है, तो बेटी को बेटा मानने का नारा भूल कर बेटा ही बेटी है का नारा बुलन्द करना चाहिए। किन्तु बेटा भी कम नहीं होता। इन सब बातों को सुन समझ कर परिवार से कहता है, जिम्मेदारी का इतना बडा पत्थर बांध कर मुझे ‘‘नो उल्लू बनाविंग‘‘ । यदि एक से ज्यादा बेटे हो गये तो मां बाप की फजीहत और अधिक होने लगती है। समय और परिस्थिति के आधार पर बेटे बेटी से होने वाले लाभ हानी का अन्दाज लगया जा सकता है।
आइए बेटा बेटी के ‘‘ नो उल्लू बनाविंग‘‘ नामक सिरीयल का अगला एपीसोड भी देख लें। भारतीय संस्कृति में चार आश्रम ब्रम्हचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास माने गये है, और सबसे ज्यादा महत्व ग्रहस्थाश्रम को दिया गया है। जीवन का सौंदर्य भी परिवार में ही मिलता है, और वह प्राप्त होता है नर और नारी के सम्मिलित प्रयास से। यदि बेटी से दूरी बना कर बेटा पैदा करने की यही ललक रही, तो बेटे पागलखाने में कैद होकर परिवार की मुल धूरी समाप्त हो जावेगी। मां बाप की आशाओं का कुल दीपक बिना तेल और बाती का दीपक बन कर रह जायेगा। नारी के बिना घर को भूत का डेरा या शमशान तक कहा गया है। कई समाजों में लडकियों की कमी के कारण अन्य समाजों से लडकियां लाकर, पैसा खर्च करने के बाद भी धोखा खाया जा रहा हैं । उम्र की अधिकता कई प्रकार से नुकसानदेह बन रही है। इसलिए प्रकृति को जो मंजूर हो वही होने दो । बेटी बेटे का फर्ज निभा सकती है किन्तु बेटा कभी बेटी नहीं बन सकता ।
बेटी को धरा पर आने दो , बेटी को बहु बन जाने दो।
बेटे को भी बहु लाने दो , बहु को बेटी बन गाने दो।।
सब बेटी की रट लगाओ, बेटे का जीवन सफल बनाओ।।
उद्धव जोशी
एफ 5/20 एलआयजी ऋषिनगर उज्जैन
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