परमात्मा,प्रकृति और पर्यावरण
परमात्मा ने अपनी प्रतिकृति के रूप में प्रकृति का
निर्माण किया । प्रकृति ने पेड,पौधो,वनस्पतियों के व्दारा धरा को श्रृगारित कर
मानव समाज को पर्यावरण की शुध्दता समर्पित की । वैदिक युग में पर्यावरण के
महत्व को जानते हुए पर्यावरण की रक्षा के लिए पूरा मानव समाज समर्पित रहा ,क्योंकि मानव जीवन का अस्तित्व प्रदूषण रहित प्राकृतिक
वातावरण से ही था।
धरती,जल,वायु,ऋतुऐं,भोजन,पेड,पौधे सभी प्रकृति के अंग होकर शुध्द
पर्यावरण इन्हीं के सहयोग से निर्मित होता है। इसीलिए वेदों में पर्यावरण के
सभी अंगो का विस्तृत विवरण देकर उसके महत्व को समझाया गया है ।
भूमि-
यस्यां वृक्षा
वानपस्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा ।
पृथिवीं
विश्वधायसं घृतामच्छावदायसि।
अथर्ववेद 12.1.27
जिस पृथ्वी पर
मूल्यवान वनस्पतियाँ व विशाल वृक्ष हों ,
जो हमें आरोग्य व शुध्द
प्राणवायु प्रदान करते हैं उनकी रक्षा एवं वन्दना करना हमारा कर्तव्य है । वनस्पति
एवं वृक्ष पर्यावरण के प्रमुख अंग हैं । वृक्ष अपनी शाखाओं में मूक परिंदों
को घोसले बनाने की जगह देता है। वृक्ष की कोंपले और पत्ती प्राणवायु प्रदान करते
हैं । वृक्ष के फल पक्षियों एवं मानव का पोषण करते हैं । वे बादलों को रोक कर
वर्षा को आमन्त्रित करते हुए भूमि के कटाव को रोकते है। वृक्ष हमारे लिए
स्वास्थ्यवर्धक एवं अनेक प्रकार से लाभदायक हैं ।
ऋतु -
ग्रीष्मते भूमे
वर्षाणि शरद्धेमन्तः शिशिरो वसन्तः ।
ऋतवस्ते विहिता हायनीरहो
रात्रे पृथिवी नो दुहाताम् ।।
अथर्ववेद 12.1.36
पर्यावरण का ऋतुओं
से घनिष्ठ संबंध है। ऋतुऐं पर्यावरण को नियंत्रित कर मानव जीवन को
स्वास्थ्य प्रदान करती है एवं प्राकृतिक संतुलन बनाये रखती है । ग्रीष्म,वर्षा,शरद, हेमन्त व वसन्त
ऋतुएँ रात दिन हमें शुध्द वातावरण प्रदान करती है । पृथ्वी उसे धारण कर समस्त
संसार को लाभान्वित कर शुध्द जल,वायु,वनस्पति एवं खाधान्य प्रदान करती है ।
जल -
भूमि पर समुद्र, नदियाँ एवं अनेक जलधाराएँ हैं जो हमें अन्न,औषधियाँ,वनस्पति व शुध्द प्राणवायु प्रदान
करती है । उसकी रक्षा करना हमारा कत्र्तव्य है । वेदों में पर्यावरण की सुरक्षा के
माध्यम से संसार के लोगों को सावधान किया गया है। मानव की सुख शान्ति एवं आरोग्य
पूर्णतः शुध्द पर्यावरण पर निर्भर है । ऋग्वेद एवं अथर्ववेद के अनेक
सूक्त पूर्ण रूप से वर्षा एवं जल के महत्व को दर्शाते हैं। जल ही जीवन है । मानव
जीवन ,कृषि,वनस्पति एवं खाधान्न का अस्तित्व जल
पर ही आधारित है ।
यो वः शिक्तमों
रसस्तस्यं भजयतह नः उशतखि मातरः ।
अथर्ववेद 10.9.2
जल समस्त जगत हेतु
कल्याणकारी है ! इसके सेवन से आंतरिक एवं बाह्य शुध्दि होती है। जल में आरोग्यप्रद
औषधीय गुण होते हैं। आयुर्वेद में जल का बडा महत्व है। मानव शरीर में 70 प्रतिशत एवं मस्तिष्क में 90 प्रतिशत जल होता है ! जल दीर्घायु प्रदान करता है।
इशानावार्याणां
क्षयन्तीश्रर्पणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ।।
ऋग्वेद 10.9.5
जल,अन्न वनस्पति आदि का उत्पादक हैं । मनुष्य का आधार है।
सभी औषधियों की औषधि है। जल समस्त प्राणीयों को रोग मुक्त करता है। हमें
वर्षा काल से शिक्षा लेकर अपने एश्वर्य एवं आयु वृध्दि हेतु ईश्वर से
प्रार्थना करना चाहिए क्योंकि पर्याप्त वर्षा ही सुख समृध्दि,खाध्यान्न,व वनस्पति प्रदान करती है। वेद मंत्रों से
प्रार्थना कर वर्षा ऋतु का स्वागत करना चाहिए ।
वायु-
उत वात पितासि
न उत भ्रातोत नः सखा ।
स नो जीवात वे
कृध्दि ।।
ऋग्वेद 10/186/2
स्वस्थ्य जीवन हेतु वायु का सेवन आवश्यक है जो आरोग्य
प्रदाता है। प्रातःकाल की वायु प्राणदायक होती है । प्रातःकाल की वायु सेवन से
प्राणी निरोगी एवं दीर्घजीवी बनता है ।
आ वात वाहि भेषजं
वि वात वाहि यद्रषः ।
त्वं हि
विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे ।। ऋग्वेद 10/137/3
वायु औषधियुक्त
होकर समस्त रोगों को दूर करता है। वायु देवदूत बनकर प्रवाहित होकर समस्त जीव जन्तु
,मानव वनस्पति को रोग मुक्त करता है ।
यद्दो वात ते
गृहेअमृतस्य निध्र्हिितः ।
ततो नो देहि जीवसे
।।
ऋग्वेद 10/186/3
इस वायु के घर
अंतरिक्ष में जो वह अमरता का निक्षेप भगवान व्दारा स्थापित है ,उससे यह वायु हमारे जीवन के लिए जीवन तत्व प्रदान करता
है। यह वायु हमारा पितृवत पालक,बन्धुवर ,धारक
व पोषक और मित्रवत सुखकर्ता है ।
ध्वनि -
वेदों में स्पष्ट
आदेश है कि हमेशा मधुर वचन बोलें क्योंकि कर्कश आवाज मानसिक शान्ति को भंग करती
है। यह संसार मधुर हो सकता है । पृथ्वी पर उपलब्ध समस्त वस्तुऐं ,सूर्य की क्रान्ति मधुर हो सकती है यदि हम वेद के
बताये मार्ग पर चलें तो । हम शान्ति से रहे और दूसरों को शान्ति से रहने दे
भोजन -
वेदों में स्पष्ट
निर्देश है कि हमें क्या और कैसे खाना चाहिए । हमें कम खाना और पूर्ण रूप से चबा
चबा कर खाना चाहिए । स्वास्थ्यवध्र्दक पदार्थो का सेवन करना चाहिए।
अथर्ववेद के छठे
अध्याय के 135(2) वे सूक्त में खाने पीने संबंधी स्पष्ट दिशा
निर्देश दिये गये हैं ।
यत्
पिबामि सं पिबामि समुद्र इव संपिबः ।
प्राणानमुष्य
संपाय सं पिबामा अमुं वयम्।।
जो वस्तु मैं खाता
हूँ,शान्ति से धीरे धीरे चबा कर खाता हूँ। इसे
पचाने में आसानी होती हैं। जैसे समुद्र धीरे धीरे सब कुछ अपने में समा लेता
है ।
वर्तमान में
प्रकृति के प्रभाव को कमतर किया जाकर वृक्षों एवं वनस्पतियों की अंधाधुंध कटाई की
जाकर जंगलों को नष्ट किया जा रहा है ! भू गर्भ से खनिजों का दोहन किया जाकर अपनी
धन संपदा को बढाने के लिए प्रकृति का जितना अधिक से अधिक दोहन हो सके ,वह लालची मनुष्य कर जन जीवन को संकट में डाल रहा है।
इसी कारण मौसम का रूख और ऋतुओं ने प्रभाव मानव जीवन को संकट में डाल रहा है।
समय पर वर्षा न होने से पीने के पानी और अन्न के उत्पादन समस्या गहराती जा रही है
।
नदियों एवं
तालाबों का जल प्रदूषित हो रहा है। शहर की गन्दगी नदियों में डाली जा रही है ।
तीर्थस्थानों पर बहती पावन नदियों पर बने सुन्दर घाट एवं उनसे सट कर बहता जल कीचड
और गन्दगी के कारण अनुपयोगी हो रहे हैं । कल कारखानों एवं बूचड खानों
से निकलने वाले प्रदूषित जल को नदियों एवं तालाबों में मिलाया जा रहा
है। नलों की सुविधा ने कुओं एवं बावडियों का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है। बडे
बांध जन जीवन के लिए सुविधा के साथ संकट भी पैदा कर रहे हैं ।
वर्तमान समय में
ध्वनि प्रदूषण निरन्तर बढता ही जा रहा है। ध्वनि विस्तारक यंत्रो का प्रयोग,कल कारखानों की तेज ध्वनि,वाहनों के हार्न,रेडियो टी वी का शोर आदि ने पर्यावरण
को प्रदूषित कर दिया है जिससे मानव का जीना दूभर सा हो गया है।
इसी प्रकार
वायुमण्डल दुषित होकर अन्न भी जहरीला हो रहा है । मिलावट ने मानवता को मटियामेट कर
दिया है। इन्सान ही इन्सान का दुश्मन बन रहा है। यदि भुमि,जल,वायु,और भोजन शुध्द रहेगा तो पर्यावरण शुध्द
होगा जिसके व्दारा मानव का शारीरिक,मानसिक,
भौतिक,आध्यात्मिक आदि सब प्रकार के क्षेत्र में विकास होकर
सुख,शान्ति और ऐश्वर्य की प्राप्ती होगी । अतः
पर्यावरण को प्रदूषण से बचाना हमारा कत्र्तव्य एवं धर्म है इससे सारा संसार
स्वस्थ्य रहेगा ।
वैदिक
वाणी आज भी बडी उपयोगी एवं प्रासंगिक है । इसके अनुपालन से आज भी पर्यावरण
शुध्द हो सकता है तथा मानव कल्याण की राह प्रशस्त हो सकती है।
उद्धव जोशी,उज्जैन